Saturday, December 25, 2010

वतन का खाया नमक तो नमक हराम बनो

(सुनील)

वतन का खाया नमक तो नमक हराम बनो
राजा और सुरेश कलमाडी जैसा बेईमान बनो
पराई नार और पराया धन पर जितना हो नजर डालो
एक नहीं कई नीरा को रातों रात बना डालो
जनता का पैसा है, इसे अपना समझ घर में घुसा डालो
कागजों और फाइलों का क्या है
जब चाहे गुम कर डालो
पैसे का खेल है,
छानबीन का तमाशा कर डालो
सीने पे ठोक के हाथ
अपने आप पे गुमां करो
सरकार और विपक्ष का क्या है,
एक ही थाली के चट्टे-बट्टे
खुद भी खाओ और इन्हें भी खिला डालो
क्योंकि
ये आदत तो वो आदत है,
जो रातों-रात अपना घर भरे दे, भर दे, भर दे रे..
कि कोई नया गेम शुरू करवा दो
बाकी लोगों को भी भ्रष्टाचार और घोटाले का मौका दो।

Thursday, December 23, 2010

तेरे हाथों में वो जादू है...

(सुनील) www.sunilvaniblogspot.com

प्याज को लेकर केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की चुस्ती-फुर्ती देखकर मन गदगद हो गया। आनन- फानन में 400 सरकारी केंद्रों पर प्याज की ब्रिकी भी शुरू कर दी गई। लेकिन दिल्ली सरकार का यह कदम मन में एक डर पैदा कर रहा है। सुना है दिल्ली सरकार के हाथों में गजब का कमाल है, जिस चीज को वो बेचने का निर्णय कर लेती है, वो आम से खास हो जाती है और यही मेरे डर का कारण है। इस बात की चिंता मुझे लगातार सताए जा रही है कि प्याज भी कहीं खास न बन जाए और आम लोगों से दूर होकर केवल खास-खास थालियों में ही न दिखने लगे। पहले तो रोटी-दाल से हाथ धो लिया, अब ऐसा न हो कि रोटी-प्याज-नमक से भी हाथ धोना पडे। बडे-बूढे कहते हैं कि हमारी दिल्ली सरकार बहुत ही खास है। पहले आटा बेचना शुरू किया तो आटा महंगा हो गया, उसके बाद दाल बेचना शुरू किया तो लोगों की थालियों से दाल गायब हो गई। अब प्याज बेच रही है तो आम लोगों के किचन में बचेगा क्या। यही नहीं इनके नक्शे कदम पर डेयरीवाले भी हैं। जिन डेयरियों पर इन्हें बेचने का निर्णय किया जाता है वहां रातों-रात दूध महंगा हो जाता है। सरकारी केंद्रों पर सरकार द्वारा 40 रुपए प्याज बेचा जाना, क्या इस कीमत को सस्ता कहा जा सकता है और यदि नहीं तो हम सब सरकार के इस कदम को वाह-वाही क्यों दे रहे हैं। मातम मनाओ कि अब जल्द ही प्याज भी चंदा मामा जैसी दूर की चीज हो जायेंगे।

Monday, December 13, 2010

darane laga hain ye shahar

सुनील कुमार


डर लगने लगा है इस शहर से,

हर घडी, हर पहर में

राह चलते डराती हैं उनकी नजरें

बस अब तो हर चेहरे में

अपराधी और बदमाश ही नजर आता है मुझे।

भ्रष्टाचार, बलात्कार और अत्याचार,

बन गई है इस शहर की पहचान,

अब तो हर अपना भी,

अनजान लगने लगा है मुझे।

जिन गलियों में गुजरते थे बेवाकी से

शाम ढलते ही बेगाना सा हो जाता है

क्या बताऊं तुझे ऐ शहर

अब तो अपना दरवाजा भी बेगाना लगने लगा है मुझे

13दिसंबर

Tuesday, October 12, 2010

क्या इसी मनरेगा पर इतरा रही है सरकार

(सुनील) http://www.sunilvani.blogspot.com/
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना नाम से ही भव्यता झलकती है और इसी नाम पर सरकार अपनी पीठ भी थपथपाती रहती है लेकिन गांव-गांव और शहर-शहर तक इस योजना को पहुंचाने का दंभ भरने वाली सरकार की मनरेगा की सच्चाई कुछ और ही बयां कर रही है। कल सोनी चैनल पर शुरू हुए द ग्रेट अमिताभ बच्चन का शो 'कौन बनेगा करोडपति' ने इस योजना की असलियत को सामने ला दिया। अमिताभ बच्चन द्वारा पूछे गए एक सवाल 'नरेगा' योजना किस महान नेता के नाम से जुडा हुआ है। इस प्रश्न के चार ऑप्शन महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, राजीव गांधी और इंदिरा गांधी थे। प्रतियोगी को इस प्रश्न का उत्तर नहीं पता था। यहां तक तो ठीक था। उसने लाइफ लाइन का इस्तेमाल किया और एक्सपर्ट की राय ली। एक्सपर्ट ने भी संकोचपूर्वक जवाब दिया। हालांकि उनका जवाब सही था लेकिन हद तो तब हो गई जब केबीसी में बैठे अधिकांश दर्शकगणों में से महात्मा गांधी को केवल 9 फीसदी वोट मिला जबकि अधिकांश दर्शक जवाहर लाल नेहरू या फिर राजीव गांधी के पक्ष में थे। तो आप सोच सकते हैं कि सरकार की यह योजना कितनी घर-घर तक पहुंची हुई है और कितने लोग इस योजना से वाकिफ हैं। आप आप इस योजना की राज्यवार सफलता के बारे में आसानी से सोच सकते हैं।
सरकार की जय हो

Monday, October 4, 2010

अतुलनीय भारत, अतुलनीय दम

(सुनील)
राष्ट्रमंडल खेलों का इतना शानदार आगाज देखकर न केवल भारत के लोग बल्कि दुनिया के लोगों ने भी दांतों तले अंगुलियां दबा लीं। इस खेल ने भारत विरोधी देशों को न केवल करारा जवाब दिया बल्कि उन्हें सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि भारत सचमुच अतुलनीय देश है जिससे लोहा लेना इतना आसान नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों के इतने शानदार उद्धाटन ने दिल में इतनी खुशियां भर दी है कि बोलती बंद हो गई। इसलिए चंद शब्दों में ही अपनी बातों को बया कर रहा हूँ -

• सबके जुबान पे लगा ताला, राष्ट्रमंडल खेल आला रे आला
• पूरी दुनिया ने देखा भारत का दमखम, इसलिए हम भी जोश में बातें कर होश में
• खेलों के जरिए भारत का विश्व में बढा रूतबा
• भारत का दम देखकर हुआ विश्व का होश गुम
• हुई दिल्ली की शादी, पूरी दुनिया बनी बाराती
• रंगों में नहाया दिल्ली, विरोधी बने भीगी बिल्ली
• दिल्ली के स्टेडियम में पूरी दुनिया सिमटी
• दिल्ली बना पूरे विश्व का दिल
• वेशभूषा और भारतीय संस्कृति को देख लोगों ने कहा इसलिए कहतें है भारत को अनेकता में एकता वाला देश
• चला रंगों का जादू, दर्शक हुए मुग्ध
• हर धर्मों का एक घर, हमारा हिंदुस्तान
• बातों से नहीं काम से जवाब दिया बोलने वालों को
• जमा रंग, दुनिया दंग
• देश की संस्कृति के रंग बिखरे, विदेशी सराबोर
• ऐसे महान भारत की जय हो, जय हो, जय हो......

Wednesday, September 22, 2010

गोलमाल है भाई सब गोलमाल है

(सुनील)
देश की प्रतिष्ठा को बचने वाले ठेकेदारों की नजरों में जरा सुनिए उनकी ही जुबानी राष्ट्रमंडल की कहानी-
घटनाएं एवं विवाद - माननीय देश के ठेकेदारों की जुबान
दिल्ली का फुट ओवर ब्रिज गिरा - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
जामा मस्जिद पर आतंकी हमला - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
खेलगांव तक पहुंचा पानी- राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
हर जगह मलबा ही मलबा - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
आधी-अधूरी है तैयारियां - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
स्टेडियमों का काम पूरा नहीं - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
कई नामी गिरामी खिलाडी नहीं आएंगे भारत - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
भिखारी तंग कर सकते हैं विदेशी मेहमानों को - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
हर जगह खुदी पडी है दिल्ली - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
थीम सांग नहीं आया लोगों को पसंद - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
कई इवेंट किए जा सकते हैं रद्द - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
कई देशों ने मांग की रद्द हो खेल - राष्ट्रमंडल खेलों पर कोई असर नहीं
और अंत में नहीं होंगे राष्ट्रमंडल खेल - कोई बात नहीं हम पर कौन सा असर पडने वाला है, हमें जो खेल(भ्रष्टाचार) खेलना था वो तो हमने खेल लिया अब बाकी का खेल नहीं भी हो तो हमारे सेहत पर कौन सा असर पडने वाला है।
जय भारत

Thursday, September 16, 2010

नेता बडा या गुरु, बखेडा काहे का

(सुनील) http://www.sunilvani.blogspot.com/

सुना है नेताजी ने गुरु का अपमान कर दिया, अरे भाई! नेता तो स्वार्थ की प्रतिमूरत है, उसके लिए किसी का मान क्या और अपमान क्या। वैसे भी वे गुरु तो केवल गिने-चुने के ही होंगे, नेता तो पूरे देश का है तो सबसे बडा गुरु इस लिहाज से तो नेता ही हुआ न। आप लोग भी छोटी सी बात का बखेडा खडा कर देते हैं। हैं तो भारतीय ही न, आदत तो भारतीयों वाली ही रहेगी। नेता(गिल) ठहरा आई-पिल, प्रभावशाली तो होगा ही। अब फोटो में अदना सा गुरु दिखेगा तो गिल का आई-पिल जैसा प्रभाव कहां रहेगा। वैसे भी जिसको प्रतिक्रिया देना चाहिए था, वो तो चुपचाप मुस्कुराता रहा, विश्वास न हो तो अखबारों में छपे फोटो का देख लीजिएगा। फिर भला हम क्यों अंगुली करने पर तुले हुए हैं। एक ठहरा विश्व विजेता तो दूसरा ठहरा देश का नेता, दोनों एक-दूसरे में अपना लाभ देख रहे थे लेकिन मीडिय वालों को तो आजकल बखेडा करने के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा है। अखबारों में छपे फोटो को देखिए शिष्य के चेहरे पर क्या चमक है। गुरु के अपमान का अफसोस तो बाद में भी होता रहेगा।
और अंत में- गुरु तो कुम्हार ही रहेगा, शिष्य को कुंभ बनाता ही रहेगा।
गुणगान तो उसका होना चाहिए जो उस कुंभ में तरह-तरह का खजाना डालेगा।

Thursday, September 9, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों का नहीं,सेक्स रैकेटों की तैयारियां पूरी

(सुनील) www.sunilvani.blogspot.com
दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में भले ही कितने उतार-चढाव आ रहे हों, काम के डेडलाइन पर डेडलाइन खत्म हो रहे हैं लेकिन काम नहीं खत्म हो रहे हैं। ऐसे में राजधानी का एक तबका ऐसा भी जिसने राष्ट्रमंडल खेलों से पहले अपनी सभी तैयारियां पूरी कर ली है। जी हां, मैं बात कर रहा हूं सेक्स रैकेट का धंधा चलाने वाले वर्करों की। इन्होंने बकायदा वेबसाइट(जैसे रितीदेसाईडॉटकॉम) और न जाने इन जैसे अनेक साइटों ने अपनी तैयारियों को लोगों तक पहुंचाने के लिए ईमेल का सहारा लिया है। इन वेबसाइटों में उन तक संपर्क करने से लेकर आपकी पसंद तक विशेष ख्याल रखा गया है। हाई प्रोफाइल, मॉडल्स से लेकर कॉलेज गर्ल हर तरह की लडकियां उपलब्ध कराने वाले इस वेबसाइट ने कीमतों के साथ भी किसी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया है। घंटे और रात के हिसाब से हर तरह के कीमत इस वेबसाइट पर दर्शाए गए हैं। 15 हजार से कम में बात करने वाले लोगों से इस वेबसाइट ने पहले ही हाथ जोड लिए हैं। अब आप खुद ही सोच सकते हैं कि यह वेबसाइट किन लोगों के लिए तैयार की गई है। राष्ट्रमंडल खेलों में धनाढय वर्ग भले ही अपनी रूचि न दिखाए लेकिन ऐसे वेबसाइटों पर अपनी दिलचस्पी बखूबी दिखा रहे होंगे। वैसे भी गेम्स में इतने बडे पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार के पैसों का इस्तेमाल कहीं और तो होना ही था, सो कुछ लोगों के लिए इससे अच्छा इंवेस्टमेंट कुछ और हो भी नहीं सकता है। खैर इस प्रकार का धंध चलाने वालों ने तो अपनी तैयारियां पूरी कर ली है, लेकिन हम मौन क्यों हैं। मीडिया, सरकार, प्रशासन सभी ने चुप्पी क्यों साध रखी है? शायद इसलिए कि बहती गंगा में हाथ धोने का मौका उन्हें भी मिल जाए?

Friday, August 27, 2010

क्या आप चेतन भगत के बात से सहमत हैं?

(सुनील)
प्रसिध्द लेखक चेतन भगत के 26 अगस्त, दैनिक भास्कर में कॉमनवेल्थ गेम्स पर छपी उस लेख जिसमें उन्होंने देश की जनता से इस खेल का बहिष्कार और स्टेडियम में न जाने की अपील की है, क्या उचित है और क्या आप उनके इस बात से सहमत है। स्तंभ में छपी कुछ बातें -
'यदि हम इस आयोजन का समर्थन करते हैं तो यह हमारी गलती होगी। यह भारत के नागरिकों के लिए एक सुनहरा मौका है कि वे इस भ्रष्ट और संवेदनहीन सरकार को शर्मिंदगी का एहसास कराए। आमतौर पर भ्रष्टाचार के मामले स्थानीय होते हैं और वे पूरे देश का ध्यान नहीं खींचते लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों के मामले में ऐसा नहीं है। यह एक ऐसा आयोजन है जिसमें किसी एक क्षेत्र या प्रदेश विशेष की जनता नहीं बल्कि पूरे देश की जनता ठगी गई है। यह सही समय है जब हम भ्रष्टाचार के खेल का पर्दाफाश कर सकते हैं और इसके लिए हमें वही रास्ता अख्तियार करना होगा, जो हमें बापू ने सुझाया है - असहयोग। मैं काफी सोच-समझकर ऐसा कह रहा हूं। राष्ट्रमंडल खेलों का बहिष्कार करें। न तो खेल देखने स्टेडियम में जाएं और न ही टीवी पर देखें। हम धोखाधडी के खेल में चीयरलीडर की भूमिका नहीं निभा सकते। भारतीयों का पहले भी काफी शोषण किया जा चुका है। अब हमसे यह उम्मीद करना और भी ज्यादती होगी कि इस खेल में मुस्कुराते हुए मदद भी करें। यदि वे संसद से वॉकआउट कर सकते हैं तो हम भी स्टेडियमों से वॉकआउट कर सकते हैं।'
        ये सच है कि गेम्स से जुडे अधिकारियों और नेताओं ने भ्रष्टाचार की नई मिसाल खडी करते हुए भारत की प्रतिष्ठा को ताक पर रख दिया है। उन्होंने तो आदतन वैसा ही किया जैसा उनसे उम्मीद की जाती है। यदि ऐसे में देश की जनता भी स्टेडियमों में जाने से इंकार कर दे तो विश्वस्तर पर हमारी क्या इज्जत रह जाएगी। ये वक्त देश में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स के बहिष्कार का नहीं बल्कि हमारी प्राथमिकता इसके सफल आयोजन पर होनी चाहिए। हमें यह याद रखना होगा कि ये कोई घरेलू आयोजन नहीं है, पूरे विश्व की इस पर नजर है। ऐसे में देश की जनता का सहयोग नितांत जरूरी है। जरा सोचिए कि देश में होने वाले गेम्स में यदि भारतीय दर्शक नजर नहीं आएंगे तो विश्व में हमारी क्या छवि रह जाएगी। इस गेम में देश का हजारों करोड रुपया फंसा हुआ है और यदि भारतीय दर्शक स्टेडियम नहीं पहुंचते हैं तो भारतीय अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है। जहां तक बात है बापू के असहयोग आंदोलन का तो वह विदेशी दुश्मनों को देश से बाहर खदेडने के लिए था लेकिन यहां तो देश का दुश्मन अपने ही लोग हैं। इनसे निपटने के लिए नेताओं का असहयोग करना होगा न कि खेलों का।

Thursday, July 15, 2010

आज के युवा पत्रकार और हम

(सुनील)

मीडिया की दुनिया में दिखने वाला चमक-दमक और प्रभाव ने मीडिया संस्थानों में छात्रों की संख्या में काफी वृध्दि कर दी है। युवाओं का रूझान हाल के समय में इस ओर काफी बढा है। दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में तो मीडिया छात्रों की तो बाढ सी आ गई है। विभिन्न राज्यों से आने वाले छात्र कोर्स करने के बाद यहीं के होकर रह जाते हैं। एक तो मीडिया की धूम और दूसरा राजधानी का आकर्षण ये दोनों चीजों छात्रों पर इस कदर हावी हो जाती है कि वह यही का होकर रह जाता है। हालांकि मैं भी झारखंड से आकर यहीं बसने की कोशिश में लगा हुआ हूं। यहां तक तो ठीक है लेकिन पत्रकारिता कोर्स करने के बाद जो कौशल और हुनर छात्रों में देखने को मिल रहा है, वो हैरान करने वाली है। कभी-कभी तो लगता है कि क्या छात्र केवल मीडिया का आकर्षण और उसके प्रभाव को देखकर ही इसमें आने का फैसला कर लेते हैं। पत्रकारिता के उपरांत कई ऐस छात्र देखने को मिल रहे हैं जिनके लेखन शैली को देखकर आश्चर्य होता है, जबकि पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण कडी है लेखन शैली और शब्दों के साथ खेल। अतः जब इनका सूझबूझ ही नहीं है तो फिर पत्रकारिता काहे का। शायद यही कारण है कि पत्रकारिता के स्तर में गिरावट देखने को मिल रहा है। हालांकि मैं खुद अभी एक अच्छी सी जॉब की तलाश में हूं। जब मैं कहीं नौकरी की तलाश में किसी अखबार कार्यालय या टीवी चैनल के कार्यालय पहुंचता हूं तो मेरा बॉयोडाटा देखने के बाद सामने वाले के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और चेहरे के हाव-भाव देखकर यही लगता है जैसे कोई ज्ञानी के सामने एक अज्ञानी खडा होकर अपनी कलम प्रवीणता दिखने की जिद कर रहा हो। अलबत्ता कलम की दक्षता दिखाने से पहले ही उनका आश्वासन जिसे की टाल मटोल कहा जा सकता है, शुरू हो जाता है। लेकिन सोचता हूं इसमें वो भी क्या कर सकते हैं, छात्रों की बढती संख्या के कारण दिनभर में कई ऐसे पत्रकारिता करने वाले बेरोजगारों से रूबरू होना पडता होगा। उनकी नजर में तो सभी पत्रकार एक ही पंक्ति में नजर आते होंगे। कलम का कौशल दिखाने का अवसर ही कहा मिल पाता है। ऐसे में हम जैसे युवा पत्रकारों को एक ही डर सताता रहता है कि जिनके पास सिफारिश नहीं क्या उन्हें जॉब नहीं मिल पाएगा।

Wednesday, July 7, 2010

जनता लाचार, विरोधी बीमार, सरकार बेकार

(सुनील)

बर्दाश्त से बाहर होती जा रही महंगाई न जाने आने वाले दिनों में किस मुकाम तक पहुंचेगी। हालांकि इसे मुकाम तक पहुंचाने वाले प्रतिदिन कुछ ऐसे बयानों से रूबरू कराते हैं, जिसे सुनकर जनता केवल 'उफ महंगाई, हाय-हाय मंहगाई' करके रह जाती है और इस महंगाई का विरोध करने वाले सब कुछ बंद की तैयारी में जुट जाते हैं। एक महंगाई को सफल बनाने में लगा हुआ है तो दूसरा बंद को सफल बनाने में।
सरकार सभी चीजों को नियंत्रण मुक्त किए जाने पर जोर दे रही है। डर तो इस बात का है कि इस चक्कर में कहीं देश का बागडोर नियंत्रण मुक्त न हो जाए। कश्मीर पहले से ही नियंत्रण मुक्त चल रहा है। ऐसे में महंगाई से ऊब कर जनता का मूड बिगड गया तो देश भी आपके हाथों से कहीं नियंत्रण मुक्त न हो जाए। वैसे भी आजकल हाथ का साथ पाकर डर लग रहा है, इसलिए मैं तो अब अपने लोगों के हाथों से भी दूर रहता हूं। हालांकि फूल के चक्कर में कहीं 'फूल' न बन जाऊं और कीचड में अपने आप को धंसा हुआ पाऊं, इस बात से भी उतनी ही डर लगता है। बेचारी जनता करें भी तो क्या करे। हर तरफ से परेशानी ही परेशानी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई देश में ऐसी परिस्थितियां बनती जा रही हैं कि वस्तुओं की कीमतों में इजाफा करना जरूरी हो गई है। यदि हां, तो आने वाला समय काफी भयावह हो सकता है। एक समय जब देश का कमान एक जाने माने अर्थशास्त्री के हाथों में जा रहा था तो लोगों को सुकून था कि चलो महंगाई से काफी हद तक नियत रहेगी। लेकिन ठीक इसके उलट कीमतें अनियमित दर से बढती ही जा रही हैं। आमदनी अठन्नी और न चाहते हुए भी खर्चा रुपया करना पड रहा है। जनता तो पानी-पानी, नहीं-नहीं-नहीं... बेपानी हो रही है, क्योंकि अब पानी भी सस्ता कहां रहा। ऐसे में सरकार की यह मनमानी कब तक चलेगी।

Thursday, June 17, 2010

मां कैसे जीएंगे हम?

(सुनील)
जुडवां बच्चे इस संसार में आने की तैयारी कर रहे थे। अपनी मां की कोख में दोनों ही बच्चे मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे और इस दुनिया में आने का इंतजार कर रहे थे। दोनों एक दूसरे की आंखों में देखकर अपने भविष्य के सपने संजो रहे थे। मां जब प्यार से अपने कोख को स्पर्श करती तो उस छूअन से दोनों बच्चे गदगद हो जाते और उस स्पर्श से उन बच्चों को अपने माता-पिता को देखने की उत्सुकता और बढ जाती है। जल्द से जल्द इस दुनिया में आने और लोगों का प्यार पाने को उतावले हो रहे हैं। मगर इसी बीच उन्हें महसूस हुआ कि मां-पापा कुछ परेशान से हैं। बेचैनी किस बात की है यह उन्होंने जानने की कोशिश की। जब ध्यान से सुना तो उन्होंने अपने पापा को मां से कहते हुए सुना कि देखो महंगाई काफी बढ गई है, इसलिए हमें थोडा-थोडा खाकर ही गुजारा करना पडेगा। इस पर मां अपने पेट को छूते हुए मगर बच्चे...। चिंता मत करो उन्हें भी दुनिया में आने से पहले ही आदत पड जाएगी। इन बातों को सुनने के बाद दोनों ही एक दूसरे को देखकर यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या महंगाई बढने से रोटी नहीं मिलती। भरपेट खाने को नहीं मिलता। हमारे माता-पिता शायद इतने गरीब हैं कि उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है। कितने दुखी है वो। फिर हम क्या खाएंगे! हमें उनके लिए कुछ करना चाहिए। अगर हम भी इस दुनिया में आ गए तो उनकी मुश्किलें और बढ जाएंगी। फिर एक ने दूसरे से सवाल किया- भईया सरकार कुछ करती क्यों नहीं। वो दाम कम क्यों नहीं करती। भूख की पीड़ा तो सबको बराबर ही होती है, तो फिर गरीब की भूख के बारे में कोई क्यों नहीं सोचता। दोनों ही एक दूसरे की निगाहों में जिज्ञासावश देखते हैं, मानों मन ही मन अपने माता-पिता के लिए कुछ करने की सोच रहे हों-

कैसे जीएंगे हम, इतनी महंगाई में
आओ कुछ करें, अपनी मां की कोख की गहराई में ।
फिर अचानक से सब कुछ शांत हो गया। दोनों बच्चे मां की कोख में एक-दूसरे को गले लगाए अपने माता-पिता को भूख से तडपता देख महंगाई से लड बैठते है और अंजाम फिर से एक बार वही...... सबकुछ वैसा का वैसा ही। क्या उबर पाएंगे हम इस महंगाई से? या ऐसे ही बच्चे दुनिया में आने से पहले ही.....जरा सोचिए!

Monday, June 14, 2010

तुस्सी ग्रेट हो नेताजी



कहतें हैं नेता बयान देने में काफी माहिर होते हैं। किसी भी समस्या या आरोपों को लेकर पूछे गए सवालों पर वह बहुत ही बेबाकी से जवाब देकर अपनी और अपनी पार्टी को पाक साफ बताने की पूरी कोशिश करते हैं। अभी भोपाल गैस कांड का फैसला आने के बाद कई लोग कई तरह के बयान दे रहे हैं। हां, इस बार कुछ महारथी ऐसे भी हैं जो चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। लाशों के ढेर पर भी जिन्हें नींद आती हो उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। उस पर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो उस सोने वालों को अब उन लाशों का रखवाला बता रहे हैं। ऐसा ही एक बयान एक वरिष्ठ नेता का सुनने को मिला। जिसमें उन्होंने कहा है कि 'उनके पास और कोई विकल्प नहीं था, उस वक्त लोग गुस्से में थे और वारेन एंडरसन को बाहर निकालना अर्जुन सिंह का सही फैसला था।' वाह लज्जा नहीं आई, जब भारतीयों के जमीन पर भारतीय तडप-तडप कर मर रहे थे तो क्या लोगों को उस वक्त एंडरसन दिखाई पड रहा था और जिनको एंडरसन दिखाई पड रहा था वो तो उसे लोगों के लाशों पर चलकर उन्हें ससम्मान विदाई दे रहे थे। इतने लोगों को एक साथ मौत देना क्या आसान बात है, पल भर के लिए तो अच्छे से अच्छा जल्लाद भी कांप जाए। ऐसे में तो एंडरसन को पुनः वापस बुलाकर डी-लिट की उपाधि प्रदान करनी चाहिए थी। इनकी हरकतों को देखकर तो ऐसा लगता है कि इनके अंदर की इंसानियत तो बिल्कुल मर चुकी है। पीड़ित समुदाय तो इतनी बडी आपदा पहले ही झेल रही थी, दूसरा चोट फैसले ने दे दिया और रही सही कसर इन नेताओं के बयान ने पूरी कर दी। क्या हम भारतीय इतने कमजोर हैं जो किसी के दबाव के आगे इतने मजबूर हो जाते हैं कि अपने ही लोगों के लाशों पर चलकर एक अपराधी को जंग में जीते हुए सैनिक की तरह विदा करते हैं। स्थितियां तो उस समय भी बडी विकट रही होंगी जब आतंकियों ने ताज को निशाना बनाया था तो कसाब को भी क्यों पकडा। उसे भी बाइज्जत पाकिस्तान तक छोड कर आते।

Friday, June 11, 2010

हे, ईश्वर कहाँ हो तुम

(सुनील)
चल ऐ मन इस शहर से दूर चल
थक चुका है तन इस शहर से दूर चल
क्या कहें, किसको कहें, कैसे करें दर्द बयां
महंगाई ने इस कदर मारा है मुझको
अब तो रोटी का भी हमसे नाता टूट चुका है
बड़े अरमां से आये थे इस इस शहर में
छोटा सा अशियाँ बनाने को
मगर गिरवी रख चुका हूँ, तन एक रोटी पाने को
बीवी का मुरझाया चेहरा,
बच्चों की तरसती आँखे
कोई उमंग, न कोई तरंग
घूम रहे हैं इस शहर में नंग धडंग
कचोटता है मुझको मेरा मन
परिवार की हालत देखकर
खोजता हूँ हर कोने में
खाने को अन्न
कब तक चलेगा महंगाई का ये खेल
जीवन जीना हो गया मुश्किल
हे इश्वर कहाँ हो तुम
अब तो बस तेरा ही सहारा है

Thursday, June 10, 2010

कैसे कोई मेहनत की रोटी खाए!


सुनील
दुःखों का अंबार है, आसूंओं की धार है,
क्या हम गरीबों की जिंदगी, जानवरों से भी बेकार है।
बडी-बडी समस्याओं से हम हमेशा रूबरू होते हैं। मीडिया, न्यूज पोर्टल, ब्लॉग हर जगह इनकी चर्चा होती है। उन्हीं मुद्दों में कुछ ऐसे अनछुए पहलू रह जाते हैं, जिनसे हमारा वास्ता तो प्रतिदिन होता है लेकिन उन समस्याओं पर हम गौर नहीं कर पाते और न ही उनके लिए कहीं से कोई आवाज उठती है। अभी कुछ दिनों से देख रहा हूं कि शकरपुर(दिल्ली, जहां मैं फिलहाल रहता हूं) रोड पर रेहडी लगाने वाले(जिनमें फल और सब्जी वाले होते हैं) अपने अपने ठेली लेकर इधर-उधर भागते नजर आ रहे हैं। मैंन एक ठेली वाले से पूछा, क्यों भाई ऐसे क्यों भाग रहे हो। तो उसने कहा पुलिस वाले निरीक्षण के लिए आ रहे हैं। पकडे जाने पर सारा सामान ले जाते हैं। मैंने फिर से पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। इस पर उसका जवाब था कि मुझे ठीक से तो पता नहीं पर यहां कोई खेल होने वाला है और विदेशों से बहुत मेहमान आने वाले हैं। इसलिए हमें यहां से हटाया जा रहा है। ऐसी स्थिति दिल्ली में और न जाने कितने जगह होगी। कैसी विडंबना है कि एक समय था जब विदेशी हमारे देश में आकर भारतीयों को सालों तक शोषण करते रहे और अब विदेशियों को ससम्मान लाने के लिए एक भारतीय ही भारतीयों पर अत्याचार कर रहा है। हम शायद उन्हें यही दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि तुम्हारे जाने के बाद भी गरीब भारतीयों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आखिर विदेशियों को तकलीफ क्यों हो, दर्द सहने की आदत तो भारतीयों को वरदान में मिली हुई है। खेल के नाम पर न जाने गरीबों के साथ कौन-कौन से खेल खेले जाएंगे। अगर इसी तरह खेल के नाम पर गरीबों को सताया जाता रहा तो कैसे कोई ईमानदारी की रोटी खा पाएगा। क्यों हम अपने ही घर में परायों के जैसे जीने को मजबूर हैं। क्या इसके लिए कोई समुचित उपाय नहीं निकाला जा सकता, ताकि मेहनत करने वाले मेहनत की ही रोटी खा सकें।

Tuesday, June 8, 2010

क्या इसी को इंसाफ कहते हैं?



आत्मा को झकझोर देने वाली और हृदय विदारक घटना भोपाल गैस कांड, न्याय की आस में आंखे तो पहले ही पथरा चुकी थी, रही सही कसर फैसला आने के बाद ने पूरी कर दी। हजारों लोगों के जुबान पर शायद यही बात रही होगी जब वर्षों बाद भोपाल गैस कांड का फैसला(जिसका शायद अब उन पीड़ित परिवारों के लिए कोई मतलब नहीं रहा) आया। जिस लापरवाही ने हजारों हजार जिंदगियो को लील लिया और जिसका खामियाजा आज भी वहां के लोग भुगत रहे हैं, उनके लिए यह फैसला उनके जखमों को फिर से हरा कर देने वाला है। हमारी न्याय प्रणाली की यह विवशषता ही है कि न्याय की आस में पीड़ित परिवार को वर्षों पल-पल जलना पीड़ित है, जो उसके दर्द को और दोगुना कर देता है। उस पर भी जब न्याय इस तरह का हो तो मृत आत्मा और पीड़ित परिवार के साथ इसे मजाक ही कहा जा सकता है। क्या उस त्रासदी को भुलाया जा सकता है, जब दफनाने के लिए जमीनें कम पड़ गई थीं, एक ही कब्र में कई लाशों को दफनाया जा रहा था। ट्रक भर-भर कर लाशों को नदियों में फेंका जा रहा था, जैसे कूडा उडेल रहे हो। स्थिति ऐसी कि मरने वालों के लाशों पर कोई रोने वाला नहीं बचा था, और जो थे उनकी आंखों के आंसू तक खत्म हो चुके थे। लाशों की नगरी बन चुकी शहर जिसमें बडे-बुढे, बच्चे-महिलाएं यहां तक की जानवर भी तडप-तडप कर मौत की आगोश में समा रहे थे। ऐसे में हजारों मौतों के लिए सिर्फ दो साल की सजा क्या न्यायोचित है? उस पर भी ऐसा कि सजा के तुरंत बाद दोषियों को बेल मिल जाए।
मैं हमारे देश के न्यायपालिका व्यवस्था पर अंगुली नहीं उठा रहा। मैं इसका तहे दिल से सम्मान करता हूं। लेकिन फिर भी हाल के कुछ दिनों में ऐसे फैसले आए हैं जिनके लिए पीड़ित परिवार को वर्षों इंतजार करना पडा है। ऐसे में मन में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि क्या कुछ खास घटनाओं को विशेष श्रेणी में रखकर उसका जल्द से जल्द निपटारा नहीं किया जा सकता, जिससे पीड़ित परिवारों के लिए न्याय का मान बना रहे और न्यायपालिका की गरिमा भी बरकरार रहे। आप क्या सोचते हैं?

Thursday, June 3, 2010

भारतीय परंपरा का निर्वाह करती हमारी टीम इण्डिया



कहते हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की विश्व में एक अलग ही पहचान है। हमारा देश अनेकता में एकता का देश है। इस परंपरा का निर्वाह फिलहाल हमारे भारतीय टीम के खिलाडी कर रहे हैं। अच्छे-अच्छे महारथी टीम को पछाड देने वाली हमारी भारतीय टीम को एक कमजोर माने जाने वाली टीम से शिकस्त का सामना करना पड रहा है। इसे अन्यथा ने लें और न ही हमारे टीम की खिलाडियों की योग्यता को कम करके आंका जाना चाहिए। वो तो बस हमारे भारतीय परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। हमारी परंपरा 'अपने से कमजारे को मत सताओ, न ही उसका शोषण करो।' इसी रास्ते पर हमारी भारतीय टीम भी चल रही है। वैसे भी गांधी जी की 'करो या मरो' का नारा का निर्वहन हमारे भारतीय खिलाडी ही तो सबसे ज्यादा करते आए हैं। हमारी टीम इंडिया जब तक किसी भी मैच में करो या मरो की स्थिति उत्पन्न न कर दें, तब तक उन्हें खेल का मजा ही नहीं आता। इधर मीडिया वाले भी लगातार हमारी टीम इंडिया के खिलाडियों की हौसला अफजाई करने से नहीं चूकते। ऐसी स्थिति में हर चैनल में एंकर यही बोलते नजर आते हैं। 'आज का मैच टीम इंडिया के लिए करो या मरो जैसा है।' गांधी जी जहां कहीं भी होंगे, उनका दिल बाग-बाग हो जाता होगा। गर्व से सिर ऊंचा हो जाता होगा। तो गर्व से कहो हम भारतीय हैं।

Wednesday, June 2, 2010

अब हो रही हैं अपने सेहत की चिंता



पिंजडे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय.... । यह सच है कि किसी व्यक्ति की पीडा कोई और नहीं समझ सकता जबतक कि खुद इस पीड़ा से न गुजरना पडे। खबर है कि राठोड़ साहब को जेल की हवा रास नहीं आ रही है। उनकी सेहत बिगडती जा रही है। आज वे अपनी सेहत को लेकर दुहाई दे रहे हैं। जिसने अच्छे भले परिवार की सेहत बिगाड कर रख दिया। अपने बीमारी का रोना रो रहे हैं। क्या कभी ये भी सोचने की कोशिश कि पिछले एक दो दशक से एक पूरे परिवार की जिंदगी तुम्हारे कारनामों की वजह से कैसे बीमार हो गई। अपने रुतबे का गलत इस्तेमाल कैसे किया जाता है, इसका जीता जागता सबूत राठोड़ ने दे दिया है और आज जब अपने जिंदगी के कुछ पल जेल में गुजराने पड रहे हैं तो तिममिला उठे। वो परिवार किस तरह तिल-तिल कर जला होगा, जब गिहरोत्रा परिवार की बेटी ने तुम्हारी असहनीय पीडा से तंग होकर अपने आप को मौत के हवाले कर दिया। अगर अपने ओहदे का इस्तेमाल कर किसी मासूम की इज्जत की रक्षा की होती तो तुम्हारे ये मुस्कान में चार चांद लग गए होते, लेकिन इस कुकृत्य के बाद तुम्हारे चेहरे पर ये मुस्कान रावण की याद दिलाती है, जिसका दहन होना जरूरी है।

Monday, May 31, 2010

नक्सलवाद पर ये चुप्पी क्यों

आतंकवाद नहीं, पहले नक्सलवाद से देश को बचाओ
निर्दोषों को मौत की नींद सुलाने वाले उन कायरों से बचाओ
हर पल मौत के साए में जीने वाले आम जनता को बचाओ
शांति को भंग करने वाले मौत के सौदागरो से बचाओ
छिपकर वार करने वाले उन दुष्टों से बचाओ
विकास के नाम पर मासूमों की हत्या करने वालों से बचाओ
अपने विचार, अपने मकसद खोते जा रहे इन नक्सलवादियों से बचाओ
बचाओ इन खून खराबा करने वालों से देश को बचाओ
नक्सलवादी आम आदमियों को निशाना बनाने का जो कुकृत्य कर रहे हैं, उसकी हम सभी देशवासियों को घोर निंदा करनी चाहिए और किसी भी तरीके से हमें इनका समर्थन नहीं करना चाहिए। इनका मकसद चाहे जो भी हो लेकिन इनके वाहियात तरीके को उचित नहीं ठहराया जा सकता। आतंकवाद से लत्रडने के लिए जिस तरह से हममें एकजुटता नजर आती है वैसी ही एकजुटता क्यों नहीं जनर आ रही है? क्यों आप-हम चुप बैठे हैं? क्यों कहीं से विरोध के स्वर नहीं उठ रहे हैं? क्यों नक्सलवाद में शिकार हुए लोगों के लिए कैंडल मार्च नहीं निकाल रहे हैं? आखिर क्यों... क्यों चुप हैं हम? क्योंकि ये हमारे घर के ही दुश्मन हैं!