Wednesday, November 9, 2011

अन्ना और कांग्रेस के विवादों के बीच लोकपाल बिल का इंतजार

जन लोकपाल को लेकर अन्ना-कांग्रेस के बीच लंबे समय से चली आ रही विवाद जल्द थमने के आसार नहीं नजर आ रहे हैं। कभी सरकार का पलड़ा भारी होता है तो कभी अन्ना टीम का। लेकिन यह कभी देखने को नहीं मिला कि दोनों के बीच शांतिपूवर्क हल निकालने का प्रयास किया जा रहा हो। दोनों ही अपने को श्रेष्ठ और अपने सदस्यों को भ्रष्टाचार विहीन दिखाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन देश को कैसे भ्रष्टाचार मुक्त बनाया जाए, आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा है या फिर इस हमाम के मजे सभी लेना चाहते हैं और इसलिए इसे दिशा में ठोस पहले करने की जरूरत भी नहीं समझते।

खैर, अन्ना ने जब भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को देश के सामने लेकर आए तो ऐसा लगा कि काफी समय बाद फिर एक ऐसा शख्स आया है जो आम लोगों के लिए लड़ रहा है और इसी कारण देश के तमाम आवाम ने पूरी निष्ठा के साथ उनका साथ दिया। इसी दबाव में आकर सरकार ने भी अपनी ओर से आश्वासन दे डाला। सरकार ने मजबूत लोकपाल लाने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता जताई लेकिन बदले में अपनी कमजोर लोकपाल संसद में पेश कर दिया। गुस्साए अन्ना ने फिर से अपना अनशन का बिगुल फूंका, मगर सरकार को कहां ये चीज रास आने वाली थी। जैसे-तैस और काफी नौटंकी के बाद जब रामलीला मैदान में अन्ना को अनशन करने की इजाजत मिली तो जनता का महाकुंभ देखकर सरकार भी भौंचक रह गई। कई बैठकों और देर रात तक चलने वाली मीटिंग्स के बाद फिर से अन्ना के मांग को संसद के पटल पर रखा गया और सर्वसम्मति से पास कर दिया गया। मगर ये किसी को पता नहीं था कि कांग्रेस तो अंदर से बौखलाई हुई है और मौके की तलाश में है। आखिरकार सबसे अच्छा उपाय सूझा, क्यों न अन्ना टीम को ही तितर-वितर कर दिया जाए। न रहेगा बांस और न बजेेगी बांसुरी। अंततः एक-एक कर अन्ना टीम के सदस्यों की पोल खोली जाने लगी। दूसरों को भ्रष्टाचार मुक्त का पाठ पढ़ाने वाले अब भ्रष्टाचार के आरोपों से खुद ही घिरे हुए नजर आ रहे थे। कभी किरण पर हवाई यात्रा में हेरा-फेरी का आरोप लगा तो कभी अरविंद केजरीवाल पर चंद की रकम को लेकर धोखाधड़ी। उधर अन्ना मीडिया और सारे मसलों पर सफाई देते थक-थक गए तो मौनव्रत धारण कर लिया। कुछ चुनिंदा सवाल जिसे वो लेना चाहे, उसे लिखकर अपना जवाब सौंप देते। इन सबके बीच खार खाए अग्निवेश भी तो मौके का ही इंतजार कर रहे थे, उन्होंने भी आग में घी डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक ओर टीम अन्ना खुलेआम कांग्रेस के विरोध में प्रचार करते हुए चुनावों में वोट नहीं देने का अपील कर रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस अन्ना टीम से जुड़े सभी लोगों का लेखा-जोखा कर उसे जगजाहिर कर रही है। ऐसे में अब केवल शीतकालीन सत्र का इंतजार किया जा रहा है, जब संसद में लोकपाल पेश किया जाएगा। फिलहाल यही उम्मीद की जा सकती है कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल पेश होने के बाद अन्ना-कांग्रेस का विवाद सुलझ जाए!

Monday, May 16, 2011

अब तो रहम कीजिए, उतर जाइए न


(सुनील)
दिल्ली में कई जगह चक्का जाम, रास्ते पर खड़े आदमी हुए हालाकान। चलिए बहुत अच्छी बात है कि विपक्षी दल गाहे-बगाहे अपने वजूद का एहसास कराता रहता है। लेकिन इन सबके बीच अधिकांश नेताओं के जो बयान आ रहे थे, वह थोड़ा चकित करने वाला था। सभी के जुबान पर बस एक ही बात थी कि तेल के दाम एकदम से 5 रुपए कैसे बढ़ा दिए गए, यानी कि 1 से 2 रुपए बढ़ने चाहिए थे जो कि जायज होता। लड़ाई इस बात की नहीं होनी चाहिए कि तेल के दाम कितने बढ़ गए बल्कि लड़ाई इस बात की होनी चाहिए कि हफ्ते दर हफ्ते, महीने दर महीने महंगाई क्यों बढ़ रही है। ऐसा लगता है जैसे मोस्ट वांटेड अपराधियों की तरह सरकार ने भी एक लिस्ट तैयार कर रखा है और उसी लिस्ट के अनुसार एक एक कर सभी चीजों के दाम बढ़ाए जा रहे हैं। पेट्रोल हो गया, इसके बाद शायद नंबर है डीजल का, उसके बाद रसोई गैस की और उसके बाद वगैरह-वगैरह.....। इस लिस्ट को आम जनता में आरटीआई के तहत लागू कर दिया जाना चाहिए ताकि जनता पहले से इसके लिए तैयार रहे और विपक्ष को भी बिना वजह गर्मी में बेपानी न होना पड़ा। जैसे पेट्रोल को सरकार ने नियंत्रण मुक्त कर दिया है उसी तरह लगता है कि सरकार भी नियंत्रण मुक्त हो चुकी है। तभी न तो महंगाई पर नियंत्रण कर पा रही है, न ही भ्रष्टाचार पर और न ही काले धन को वापस लाए जाने की कवायद। मंत्री भी सारे बेलगाम ही दिख रहे हैं तभी बेहिसाब घोटालों का पर्दाफाश हो रहा है। जनबा सियासी चालों से थोड़ा ऊपर तो उठिए। केवल किसानों को पुलिस के डंडे खिलाने के बाद मरहम लगाने पहुंचेंगे, गरीबों के घर की रोटी खाएंगे और गरीब बच्चें को गोद में उठाएंगे लेकिन असल काम कब करेंगे। इतना भी इंतेहा मत लीजिए बेचारी जनता का, नहीं तो संसद में घुसकर अपनी बात रखने को मजबूर हो जाएंगे। फिर भी लगता है कि महंगाई पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता, भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता, काला धन विदेशी बैंकों की ही शोभा बढ़ाते रहेगा फिर आप क्यों राजगद्दी पर बैठकर इसे असुशोभित कर रहे हैं। उतर जाइए न, अब तो थोड़ा रहम कीजिए।

Friday, April 8, 2011

अन्ना बने दूसरे गांधी, गांधी परिवार ही मुश्किल में

सुनील (7827829555)

नवरात्र में उपवास रखकर लोग अपनी मनोकामना को पूरी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ समाज सेवी अन्ना हजारे ने आमरण अनशन कर देश को भ्रष्टाचार मुक्त कराने के अपने संकल्प पर अडिग है और उनकी यही मनोकामना है कि देश को भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से मुक्त कराया जाए। पूरे देश के लिए लड़ाई लड़ने वाले यह शख्स आज देश के दूसरा गांधी बन गए हैं। जिन्होंने गांधी को नहीं देखा वे अन्ना को देखकर यह अंदाजा लगा सकते हैं कि महात्मा गाधी ने किस तरह अहिंसा, आमरण अनशन और असहयोग आंदोलन का सहारा लेकर अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था और अंग्रेजों से देश को मुक्ति दिलाई थी। उसी सदगी, ईमानदारी और नेकी के रास्ते पर चलते हुए यह अन्ना हजारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराना चाहते हैं। उस समय लड़ाई पराए लोगों से थी लेकिन इस बार घर की लड़ाई है और घर के लोगों से ही है और इस कारण यह महायुद्ध पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल और महत्वपूर्ण है। हालांकि उनका यह महायुद्ध रंग लाने लगा है और देश की करोड़ों जनता के साथ-साथ, बुद्धिजीवी वर्ग, बॉलीवुड कलाकार, छात्र और युवा उनका भरपूर सहयोग कर रहे हैं। इसी कारण वर्तमान सरकार भी पशोपेश में पड़ गई है। अपनी नींव हिलता देख खुद गांधी परिवार की वर्तमान मुखिया सोनिया गांधी को आगे आने पड़ा। सरकार को ज्यादा फजीहत न झेलनी पड़े, इस कारण उनकी कई मांगों को मान भी लिया गया है। वहीं शरद पवार ने जीओएम से पहले ही अपने पांव पीछे खींच लिए हैं, क्योंकि वे जानते है कि मेरा दामन कितना पाक है और भ्रष्टाचार में उनका कौन सा नंबर है। खैर, भ्रष्टाचार को लेकर अगर येदि नेताओं में इस तरह की गिनती की जाए तो यह बताना मुश्किल हो जाएगा कि पहले नंबर पर किस नेता को रखा जाए। सबसे महत्वूपर्ण यह है कि इस आंदोलन का आगाज तो हो चुका है लेकिन इसका अंजाम देश की कमजोर कड़ी और विकास में बाधक बन रहे रहे भ्रष्टाचार से मुक्ति से ही होना चाहिए। यह बहुत अच्छा अवसर है जब पूरी जनता खासकर युवाओं को एक बार फिर से मौका मिला है कि वो खुद को खुदीराम बोस, भगत सिंह, सुखदेव और आजाद साबित करें और भ्रष्टाचार जैसे दैत्य से देश को मुक्त कराएं। जय हिंद!

Wednesday, March 2, 2011

आम आदमी हर बार यूं ही छला जाता है

आम आदमी हर बार यूं ही छला जाता है


मिलने के नाम पर लूट लिया जाता है,

हम हाथ फैलाए रह जाते हैं

और किस्सा वहीं का वहीं रह जाता है

आम आदमी हर बार यूं ही छला जाता है

रोटी, कपड़ा और मकान तीन चीजें जो हैं जरूरी

रोटी तो पहले ही पड़ रही थी भारी

अब है तन से कपड़े गायब होने की बारी

मकान का तो पूछो ही मत

आसमां के नीचे आज भी है सोने की तैयारी

तो किस्सा वहीं का वहीं रह जाता है

और आम आदमी हर बार यूं ही छला जाता है

Monday, February 28, 2011

नेट के जरिए बढ़ रहा लव, सेक्स और धोखा

(sunil) 7827829555
प्यार अंधा होता है और इसमें पड़कर इंसान कभी-कभी इतना बेबस हो जाता है कि वह अच्छे-बुरे की पहचान भी नहीं कर पाता। फिर उसके पास पछताने के अलावा शेष कुछ भी नहीं रह जाता। लव, सेक्स और धोखा फिल्म की तर्ज पर ऐसा ही एक मामला प्रकाश में आया है। जहां केरल के एक बैंककर्मी युवक ने दिल्ली की एक विधवा महिला से इंटरनेट के जरिए संपर्क बढ़ाया। यह संपर्क प्रेम में बदलते देर न लगी और एक दिन युवक ने जब शादी का प्रस्ताव रखा तो महिला ने भी अपने अकेलेपन को देखते हुए हांमी भर दी। कुछ दिन तक तो सबकुछ ठीक चलता रहा लेकिन जब महिला ने उस पर साथ ले जाने के लिए दबाव बनाया तो उसे छोड़कर वह फरार हो गया। अब महिला अपनी फरियाद लेकर जगह-जगह जा रही है लेकिन जीवन भर शायद ही वह इस हादसे से उबर पाए। यह घटना हर खासम-खास के लिए एक सबक है जो प्यार में पड़कर अपना सबकुछ गंवा देते हैं। प्यार करने में कोई परहेज नहीं पर प्यार के लिए दिल और दिमाग दोनों अपने साथी के प्रति खुला रखें ताकि प्यार अंधा न कहलाए और आप धोखा न खाएं।

Sunday, February 20, 2011

लिव इन रिलेशन में मिल रही मासूम को सजा

 (सुनील) 7827829555
अदालत ने भले ही लिव इन रिलेशनशिप को स्वीकृति दे दी है और समाज का कुछ खास तबका इसे स्वीकार भी करने लगा है, फिर भी आए दिन इसे लेकर कुछ ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जो इस प्रकार के संबंधों पर कई तरह के प्रश्न खड़े कर देते हैं। आखिर इस तरह के रिलेशन कितने विश्वसनीय होते हैं।
नई दिल्ली के बी.एल कपूर मेमोरियल अस्पताल में ऐसा ही एक मामला देखने को मिला जिसने समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है। जानकारी के मुताबिक मणिपुर की रहने वाली एक युवती जो अपने ब्यॉय फ्रेंड के साथ लिव इन रिलेशन में दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में रहते हैं। पिछले अप्रैल में जब वह युवती गर्भवती हो गई तो दोनों ने मिलकर गर्भपात करा लिया। इसके बाद वह फिर से गर्भवती हो गई लेकिन इस बार उसे पता नहीं चल पाया। प्रसव पीड़ा शुरू होने पर जब उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उसने एक बच्ची को जन्म दिया लेकिन वह युवक उससे मिलने नहीं आया। डाक्टर उसे अब डिस्चार्ज करने चाहते थे लेकिन युवती का कहना था कि वह इस स्थिति में नहीं कि वह अपनी बच्ची का पालन-पोषण कर सके। दोनों के परिवार वाले पहले ही उनसे संबंध तोड़ चुके हैं। अब वह युवती इस बच्ची को बेचना चाहती है या अनाथालय में उसे डालना चाहती है। वह उस युवक से शादी नहीं करना चाहती बल्कि अभी भी लिव इन में ही रहना चाहती है। पुलिस पहले ही इसे सामाजिक मामला बताकर पल्ला झाड़ चुकी है। इन सबके बीच अब देखना है कि उस बच्ची का क्या होगा। आखिर बिना कसूर के ही उसे सजा क्यों मिल रही है।

Thursday, February 17, 2011

सरकार की व्यथा....

(सुनील) 7827829555


उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते चले गए,
वो जीते रहे, हम मरते रहे
ये सिलसिला यूं ही चलता रहा
फिर पांच साल बाद वो याचक बन खडे हुए,
हमने फिर उनका स्वागत किया
और उसी मजबूरी का 'हाथ' पकड,
हम यूं ही चलते रहे
उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते रहे...
गठबंधन और भ्रष्टाचार जैसे चोली-दामन बन गया,
राजा और नीरा का नया लॉबिस्ट बन गया
अब तो खेल-खेल में रुपयों से अपना घर भरने लगा
स्टेडियमों में खिलाडी नहीं कलमाडी पैदा होने लगा
वो मजबूरियां गिनाते रहे, हम सजा भुगतते रहे...
जमीन से आसमां तक,
समुद्र से पाताल तक,
नहीं कोई अछूता रहा
हर दिल में पाप है,
अब कहां कोई सच्चा रहा।
आज फिर जब उनसे रूबरू हुए
उसी व्यथा ले बैठे रहे
मजबूरियों का दामन ओढे
वो जीते रहे, हम मरते रहे......

Sunday, February 13, 2011

आओ मनाएं भारतीय प्रेम दिवस

(सुनील) 7827829555

पश्चिमी सभ्यता को बिना देरी और बिना झिझक अपनाने वाले हम भारतीय पिछले कुछ सालों से वैलेंटाइन डे को इस तरह से मनाने लगे हैं, जैसे भारत का यह अभिन्न त्योहार रहा हो। ये अलग बात है कि वैलेंटाइन मनाने वाले बहुत कम युवक-युवतियों को पता होगा कि आखिर यह मनाया क्यों जाता है। वैसे देखा देखी करना भी हम भारतीयों की कई आदतों में से एक है। सो वैलेंटाइन भी देखा-देखी मनाने लगे। इस चीज का विरोध करने वाले भी कम नहीं हैं। क्योंकि 14 फरवरी को इस रूप में मनाया जाता है कि यह केवल प्रेमी युगलों के लिए ही है। खास कर नवयुवक-नवयुवतियों के लिए। तो अब भला जिसमें बडे-बुजुर्ग शामिल न हों तो उन्हें तो खराब लगेगा ही, और जिनके जोडे नहीं हैं, वे भी विरोधियों के लिस्ट में शामिल हैं। अतः भारतीय परंपरा के अनुरूप वैलेंटाइन डे को कुछ इस रूप में मनाया जाए जिससे एक विशेष वर्ग नहीं अपितु सभी संप्रदाय, सभी उम्र के, सभी वर्ग के लोग शामिल हों। ताकि कहीं से कोई विरोध का स्वर न उठे और भारतीय संस्कृति और परंपरा की गरिमा भी बनी रहे। तो क्यों न हम इसे 'भारतीय प्रेम दिवस' के रूप में मनाएं जहां बडे-बूढों का प्रेम-आशिर्वाद भी शामिल हों। जहां छोटे से लेकर बडे तक इस भारतीय प्रेम दिवस में शामिल हो सकें और दुनिया को प्रेम का पाठ पढाने वाले हम भारतीयों को किसी और से सीखने की जरूरत न पडे बल्कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति में दूसरे को भी समाहित हो जाने को मजबूर कर दें।

Saturday, February 12, 2011

कृषि और किसान सबसे बडा कॉरपोरेट जगत

(सुनील) 7827829555



भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बडी नींव हमारे देश के कृषि और किसान हैं। बावजूद इसके इनकी लगातार उपेक्षाएं की जा रही हैं। हर बार किसी न किसी कारण से सरकार की नीतियों का शिकार इन्हें ही होना पडता है। सरकार भले ही कितने दावे कर ले लेकिन किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं कम नहीं हो रही हैं। पंचवर्षीय योजनाएं भी किसानों के लिए छलावा ही साबित हो रहा है। गौर करने लायक बात यह है कि अनाज की कीमतें भले ही कितनी बढ जाए, उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। आज हम महंगाई की मार से त्रस्त हैं। इस महंगाई का असर सबसे ज्यादा खाद्य वस्तुओं पर ही पडा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृध्दि कर दिया है जिसके कारण बाजार पर इसका असर पडा है। सच तो यह है कि किसानों की स्थिति तो स्थिर बनी हुई है। पैदावार कम हो तो भी किसानों की मुसीबत और ज्यादा हो तो भी किसानों की मुसीबत। बाजार और कृषि के बीच सामंजस्य बनी रहे और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम पर खाद्य पदार्थों की आपूर्ति बनी रहे इसके लिए सरकार को कृषिगत नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। यानी एक ऐसे हरित क्रांति की पुनः आवश्यकता है जो किसानों को उनका समुचित हक दिलवा सके। देश की अर्थव्यवस्था में भले ही कॉरपोरेट जगत की कितनी भी बडी सहभागिता हो लेकिन हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि उनकी भी नींव तभी मजबूत रह सकती है जब कृषि और किसान खुशहल हों। आखिरकार जिस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो, उस देश का सबसे बडा कारपोरेट जगत तो किसान और कृषि को ही कहा जा सकता है।

Thursday, February 10, 2011

मक्खनवादी हैं हम भारतीय

(सुनील) 7827829555

हम भारतीय कई सारी खूबियों से लैस हैं। दुनिया के कोने-कोने में हम छाए हुए हैं। इसका एक सबसे बडा कारण हम दूसरों को मक्खन(मस्का या चाटुकारिता) लगाने में माहिर हैं। कभी बातों से मक्खन लगाकर, कभी जी हजूरी करके, कभी हां में हां मिलकार तो कभी जूते तक साफ करके हम अपने मक्खनवादिता होने का परिचय देते रहते हैं। कभी भी इस तरह के अवसर को हम चूकने नहीं देते। आगे बढने के लिए इसका बखूबी इस्तेमाल किया जाता है। यह हर क्षेत्र में मान्य है। सरकारी से लेकर निजी संस्थानों तक। किसी को अपनी तरक्की चाहिए तो इसके लिए मक्खन लगाना पडता है, तो किसी को वेतन बढोतरी के लिए मक्खन लगाना पडता है, कोई कामचोरी के लिए मक्खन लगाता है, तो कोई अपना काम निकालने के लिए मक्खन लगाता है। और कोई योग्यता हो न हो पर आगे बढने के लिए इस मक्खनवादी योग्यता का होना जरूरी है। वरना आप सबकी नजर में खटकते रहेंगे। हालांकि इस मामले में हम भारतीय स्वतः सर्वगुण संपन्न हैं। बिना प्रशिक्षण के ही हम इसमें प्रशिक्षित हो जाते हैं। दफ्तरों में यह तो सामान्य बात है, जो जितना मक्खन लगाता है, उसके चेहरे पे मुस्कान सदैव देखा जा सकता है, और आपमें यह कला नहीं है तो आपके चेहरे में हमेशा तनाव बना रहेगा। अब देखिए न मायावती का जूता साफ करके उसने अपने मक्खनवादी होने का परिचय दिया और अपने से जूनियर को यह संदेश भी दे दिया कि किस तरह से अपने से सीनियर को मक्खन लगाया जाता है। इसी तरह संसद सुचारु रूप से चलाने के लिए सरकार लगातार विपक्ष को मक्खन लगा रही है। हालांकि पुराने जमाने में ठाकुर के पैरों के नीचे बैठ के कइयों को मक्खन लगाते फिल्मों में देखा है लेकिन अब साक्षात अब पत्रढे-लिखे गंवार को मक्खनवादिता को परिभाषित करते देखा जा सकता है।

Wednesday, February 9, 2011

खून के रिश्तों के साथ खूनी खेल

सुनील वाणी
(सुनील) 7827829555

 हाल के समय में रिश्तों से जुडे ऐसे ऐसे कत्ल और हत्याएं देखने को मिली है कि एकबारगी यह सोचने पर जरूर मजबूर करता है कि क्या यह वही देश है जहां संस्कृति व परंपरा और पारिवारिक रिश्तों का अद्भुत मिलन और उसकी पवित्रता पर हमें गर्व होता था। आपको विगत कुछ दिनों में हुए पारिवारिक हत्याओं से जुडे कुछ सच्चाई से रूबरू कराता हूं जो कि समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में क्राइम के मामले में सुर्खियों में रहे। एक आधुनिक बीपीओ पत्नी ने अपने पति की हत्या कर दी, केवल इसलिए कि उसके पति के विचार आधुनिक नहीं थे और इस कारण उनसे मेल जोल नहीं खाते थे। दूसरा, एक ब्यूटिशियन पत्नी ने अपने विकलांग पति की हत्या कर दी, क्योंकि विकलांग पति से उसे सुख नहीं मिल पा रहा था(चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक)। एक बहन ने अपने भाई की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वह उसके प्रेम में रोडा बन रहा था, इसमें उसके पिता ने भी बखूबी साथ दिया। एक पोते ने पैसे के लिए अपनी दादी की हत्या कर दी। एक बेटे की ख्वाहिश पूरी न होने पर उसने अपने पिता की हत्या कर दी। इस तरह और न जाने कितने सारे उदाहरण हैं जो रिश्तों की पवित्रता और इसकी मजबूती पर सवाल उठा रहे हैं। इस देश की जो पारिवारिक पहचान है वह दुनिया के कोने-कोने में प्रसिध्द है। पर अब इन रिश्तों पर ही सवालिया निशान उठने लगे हैं। इन घटनाओं को देख कर तो ऐसा लगता है कि कौन किसकी हत्या कर दे, समझ से परे हैं। रिश्तों की ये सामंजस्य जैसे खत्म होता जा रहा है। रिश्तों की जो हमारी मजबूत बुनियाद थी, वो खत्म होते जा रही है। कहीं पश्चिमी सभ्यता में ढलने का तो यह नतीजा नहीं है। अगर ऐसा है तो फिर क्यूं न हम अपनी भारतीय सभ्यता से ही जुड जाए जहां अपने रिश्तों का ही नहीं बल्कि दूसरों के रिश्तों का भी सम्मान किया जाता है।

Sunday, February 6, 2011

वेतन किसकी बढी, सजा सबको मिली

सुनील वाणी
(सुनील) 7827829555

सरकार द्वारा महंगाई को लेकर बार बार आ रहा यह बयान 'महंगाई का प्रमुख कारण लोगों की आमदनी बढना है', थोडा हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए। क्या वो वेतन वृध्दि के खिलाफ है, या वो बचत के खिलाफ हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि आम आदमी के वेतन में बढोतरी हुई है तो महंगाई के लिहाज से वह कल जहां था आज भी वहीं खडा है। इस महंगाई ने तो बचत करने का अवसर ही छीन लिया। यदि आज के वर्तमान समय की पिछले कुछ वर्षों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो क्या आमदनी उस अनुपात में बढी है जिस अनुपात में महंगाई बढी है। रसोई से लेकर शिक्षा तक, मकान किराया से लेकर परिवहन किराया तक सब कुछ बेहिसाब बढ गया है। दूसरी अहम बात यह है कि आमदनी किसकी बढी है, सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की। वे समय दर समय और विशेष अवसरों पर लाभान्वित होते रहते हैं और सरकार के पास भी इनका सही लेखा-जोखा होता है। लेकिन हम इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों और स्वरोजगार या मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों की तादाद कहीं सरकारी क्षेत्रों में कार करने वाले लोगों से अधिक है। दिलचस्प पहलू यह है कि ऐसे निजी कंपनियों की भरमार है, जहां केवल वेतन से ही काम चलाना पडता है, वेतन भी ऐसा कि एक आदमी अपना पेट मात्र ही भर सके, परिवार तो बहुत दूर की बात है। ऐसे संस्थानों और कंपनियों में मौखिक रूप से वेतन तय कर दी जाती है। अब जब तक वो वहां काम करेगा इसी वेतन पर काम करता रहेगा। न कोई सलाना वृध्दि, न कोई बोनस, न महंगाई भत्ता और न ही अन्य भत्ता। फिर तो पीएफ की तो बात ही करना बेकार है। महत्वूपर्ण बात यह है कि इन संस्थानों में मौखिक वेतन ही नहीं बल्कि मौखिक रूप से नियुक्तियां भी हो जाती है। यानी संस्थान को जब आपकी आवश्यकता नहीं होगी, आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। आपका कोई रिकार्ड नहीं होने के नाते आप इन पर किसी तरह का क्लेम भी नहीं कर सकते। गरीब तबके की बात की जाए- जैसे रिक्शाचालक हो या और कोई मजदूर हो तो उनका भी वेतन के मामले में सबकुछ नियत ही होता है, जिसके साथ और कुछ भी जुडा नहीं होता। तो फिर वेतन किसकी बढी है लेकिन सजा तो हम सब भुगत रहे हैं।

Sunday, January 30, 2011

गाँधी के आदर्शों का ‘शहीदी दिवस’

(सुनील) www.sunilvani.blogspot.com 7827829555

 अनुशासन, ईमानदारी, सच्चाई और न जाने किन-किन आदर्शों के लिए गाँधी जी को जाना जाता है. जो बस एक खानापूर्ति मात्र रह गया है. किताबों में इन आदर्शों के बारे में बच्चों को केवल ज्ञान दिया जाता है, जिसका आज के जीवन से बहुत कुछ सम्बन्ध होते हुए भी कुछ वास्ता नहीं रह गया है. हमारी लाइफ स्टाइल ही कुछ ऐसी हो गई हैं जहाँ इन आदर्शों के कुछ मायने नहीं रह जाते. ये अलग बात हैं हम आज भी मंच पर जाकर उनकी आदर्शवादिता से रूबरू होते हैं, सुनने में अच्छा जो लगता है, और सामने वाला भी भला मानुस प्रतीत होता है. लेकिन सच तो ये है कि अनुशासन का अनुसरण करने वाला अब कोई नहीं रहा, ईमानदारी को भ्रष्टाचार के दीमक ने चट कर लिया और सच्चाई शब्दकोष में खो कर रह गई है. भला ऐसे में शहीदी दिवस को क्यूँ न आदर्शों के शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाय. शायद इस वजह से थोड़ी शर्म आ जाय उन लोगों को जिन्होंने गाँधी की तस्वीर वाले नोटों को भी ब्लैक मनी में तब्दील कर दिया. उन लोगों को जिन्होंने भ्रष्टाचार में हम कई पायदान आगे धकेल दिया, उन लोगों को जिनको हमने देश का उत्तरदायित्व सौपा था अब वही गांधी के अहिंसा के सिद्धांतों का मखौल उड़ाते हुए धर्म के नाम पे दंगे करवा रहे हैं, उन लोगों को जो देश में कालाबाजारी कर हमें महंगाई की आग में झोक रहे हैं, उन लोगों को जिनके रिश्वत लेने कि वजह से योग्य आदमी सही जगह नहीं पहुच पाता. और आखिर में हम सबको, क्योंकि इस व्यवस्था जिसका हिस्सा कहीं न कही हम भी हैं इन सबमे उनका साथ देने में. यानि हम सब हर रोज उनके आदर्शों की एक-एक पंक्तियाँ जला कर गाँधी को अपने आप से दूर कर रहे हैं.

Monday, January 24, 2011

मिलन अभी आधा अधूरा है...

(सुनील) http://www.sunilvani.blogspot.com/ 7827829555

20 जनवरी को हुए ब्लॉग सम्मेलन में मुझे भी शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहली बार मैं किसी ब्लॉग सम्मेलन में शामिल हुआ। इस सम्मेलन में मुझे एक खास अपनापन सा महसूस हुआ। हालांकि मैं सबों के लिए नया चेहरा था इस कारण मेरे और उनके बीच में कुछ दूरियां थीं और सबों से ठीक तरह मिल भी नहीं पाया। लेकिन उम्मीद करता हूं कि ये दूरियां आने वाले दिनों में इस तरह के कार्यशालाओं में लगातार शामिल होने से दूर हो जाएंगी। तब यह अपनापन और भी बढ जाएगा। वैसे ब्लॉग के प्रति लोगों का जज्बा देख कर दिल गदगद हो उठा, क्योंकि लोगों में ब्लॉग के प्रति उत्सुकता ही नहीं बल्कि इस ब्लॉग के जरिए काफी कुछ बदलने की ताकत भी देखा और यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में यह ब्लॉग लोगों के लिए सशक्त माध्यम होगा जहां से हर व्यक्ति न केवल अपनी समस्याओं को उठा सकेगा बल्कि हर घर में प्रत्येक सदस्य अपने आप में पत्रकार होगा और पत्रकारिता को भी एक नया स्वरूप मिलेगा। आने वाले समय में यह विधा जन-जन से जुडे इसके लिए इस तरह के सम्मेलन और कार्यशाल का आयोजन काफी महत्वपूर्ण होगा। देश के कोने-कोने से लोग ब्लॉग को जाने और बडे स्तर पर मिलने जुलने का मौका मिले। प्रत्येक राज्य से ब्लॉग के प्रति लोगों का जुडाव हो और ये आधा अधूरा मिलन संपूर्ण रूप में बदल जाए। बस यही कामना है। धन्यवाद

Friday, January 21, 2011

काला धन बनाम सफेदपोश

(सुनील) http://www.sunilvani.blogspot.com/ 7827829555
काले धन को उजागर होने के बाद यह बात तो साफ हो गई है कि भारत के पास अथाह धन है जो चाहे तो अमेरिका और चीन को पीछे छोडते हुए आर्थिक संपन्नता के मामले में इनसे आगे निकल सकता है। हालांकि यह कब तक संभव हो पाएगा इस मसले पर बडे-बडे ज्योतिषियों के गुणा-भाग भी काम नहीं आ रहा हैं। सरकार भी ऊहापोह की स्थिति में है और लगातार इस मामले की हीलाहवाली कर रही है। सरकार को भी पता है कि इस काले धन के साथ अनेक ऐसे सफेदपोश जुडे हुए हैं, जो खुद उनका ढाल बने हुए हैं। ऐसे में सरकार के अस्थिर होने का खतरा है, साथ ही जनता का विश्वास भी इन तथाकथित सफेदपोशों के प्रति कमजोर होगा। शायद यही वजह है कि सरकार भी इन नामों को खुलासा करने से कतरा रही है। जैसे भारतीय संस्कृति में पत्नियां अपने पति का नाम लेने से कतराती है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट इस काले धन को राष्ट्रधन बताकर सरकार पर उन नामों को जनता के सामने लाने का दबाव बना रही है लेकिन बडे-बडे नेताओं और मंत्रियों की इस मामले पर चुप्पी कुछ और ही इशारा कर रही है। क्या सरकार पर बाहरी दबाव काम कर रही है, जिसके कारण सरकार भी असमंजस की स्थिति में है। आखिर सरकार को अपनी साख और ताख भी बचानी है लेकिन इस मसले पर आखिरकार कोई ठोस निर्णय तो लेना ही होगा। आखिर सवाल 700 खराब का है जो भारत को अन्य विकसित देशों के मुकाबले एक अलग पहचान दे सकती है। भूख, गरीबी, बिजली, शौचालय, परिवहन जैसे मूलभूत समस्याओं से अब तक जूझ रहे लोगों के लिए यह पैसा वरदान साबित हो सकता है। यह पैसा ग्रामीण परिवेश को भी बदलने में कारगर साबित हो सकता है। साथ ही सरकार भी सरकारी खजाने का रोना नहीं रो पाएगी। इन सबके बीच अब सबसे महत्वपूर्ण यह है कि काले धन को लाने में सफेदपोश अपनी भूमिका किस प्रकार निभाते हैं। डर इस बात का है कि इनकी कथनी और करनी में हमेशा की तरह अंतर न आ जाए।

Tuesday, January 18, 2011

मौजूदा सरकार को कितने अंक दें?

(सुनील) http://www.sunilvani.blogspot.com/ 7827829555


क्या यह सरकार वास्तव में कमजोर है, लाचार है, बेबस है या मजबूर है? क्या तजुर्बेकारों की यह टोली केवल दिखावा मात्र है? ऐसे न जाने कितने प्रश्न इस गठबंधन सरकार के लिए लोगों के मन में कौंधने लगा है। हालांकि भ्रष्टाचार और महंगाई के मामलों में अव्वल यह सरकार लगातार सात सालों से शासन कर रही है, ये भी अपने आप में बहुत बडा आश्चर्य है। किसी का किसी पे कोई नियंत्रण नहीं दिखता। सभी अपने अपने राग अलापने में लगे हुए हैं और अपनी अपनी मनमानी कर रहे हैं। जयराम रमेश एक सनकी मंत्री के रूप में उभर रहे हैं तो ए राजा भ्रष्टाचार को ही अपना सब कुछ बना बैठे हैं। इधर सुरेश कलमाडी अपना खेल खेलकर विजयी मुद्रा में दिख रहे हैं और अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं। कपिल सिब्बल अपने अलावा सभी फाइलों में गलतियां निकालने में लगे हुए हैं और शरद पवार का बयान लगता है जैसे मौसम की भविष्यवाणी कर रहे हों। इन सबके बीच बेचारे प्रधानमंत्री खुद ही अपने आप को पीएसी के सम्मुख पेश होने का फरमान जारी कर देते हैं। जैसे एक पिता अपने पुत्रों की गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा हो। शांत और ईमानदारी निश्चित रूप से प्रधानमंत्री का आवश्यक गुण है, मगर अपने मंत्रियों पर नियंत्रण न होना, खुद को कमजोर और मजबूर दिखाना, किसी ठोस निर्णय पर न पहुंच पाना, ये लक्षण अगर दिखने लगे तो फिर उनका केवल शांत प्रिय और ईमानदार होना देश के लिए हितकर होगा। ऐसे में देशवासियों को मौजूदा सरकार को किस रूप में आंकना चाहिए और इसे कितने अंक दिए जाने चाहिए। शायद इसलिए सरकार ने अंक पध्दति खत्म कर ग्रेडिंग सिस्टम लागू कर दी ताकि कोई किसी भी स्तर पर फेल न हो और सबकुछ यूं ही चलता रहे। तो फिर गर्व से कहो हम भारतीय हैं?

Saturday, January 15, 2011

...और खिलाओ नेता-मंत्री को अपने यहां

सुनील (7827829555)

गरीब का कथन
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय
मंत्रीगण भी भूखा न रहे, युवराज भी भूखा न जाए

नेता का रिटर्न गिफ्ट
साईं दलित को इतना दीजिए, देश का नेता यहां खाए
पेट भर जब संसद पहुंचे, महंगाई के लिए इन्हें दोषी ठहराय

Saturday, January 8, 2011

अंधी और बहरी सरकार के साथ नख-शिख विहीन विपक्ष

(सुनील) 7827829555

पता नहीं ये राजनीति लोगों को और क्या-क्या दिखाएगी। नित नए हो रहे आश्चर्यजनक खुलासों से आम आदमी दांतों तले अंगुलिया दबाने को मजबूर है। जनता अब यह सोचने को मजबूर है क्या यह वही सरकार है जिसे इतने विश्वास के साथ हमने चुना था। घोटालों और भ्रष्टाचार के नाम पर देश नए आयाम को छूने जा रहा है। हमारा देश तो अब इस मामले में नया इतिहास लिखने को तैयार है और इस बात की भी गुंजाइश है कि छात्रों को पुराने इतिहास की बजाय इस ताजातरीन इतिहास से अवगत कराया जाय। सरकार को जिस विश्वास के साथ जनता ने गद्दी सौंपी थी, वह देशाभिषेक के साथ ही धृतराष्ट्र हो गई। इतना ही नहीं इस धृतराष्ट्र ने तो अपने कान भी बंद कर लिए हैं। यानि यह सरकार अपने हाथों और पंजों का सही इस्तेमाल कर रही है। सबसे मजेदार बात यह है कि इस सरकार के साथ-साथ विपक्षी दलों की खासियत भी जग जाहिर होने लगी है। अंधी और बहरी सरकार के साथ जनता को गूंगे और ताकतविहीन विपक्ष का तोहफा मिला है। इसकी आवाज सरकार के नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई है। जाहिर सी बात है कि विपक्ष की इस कमजोरी ने ही सरकार और उसके मंत्रियों के हौसले इतने बुलंद कर दिए है कि घोटाला करने का एक भी मौका नहीं छोडते। इस मामले में ये नई इबारत लिख रहे हैं। महंगाई ने किचन से अन्न गायब कर दिया और घोटालों ने देश से रुपया। यानी अब महमूद गजनवी अब अपने देश में ही पैदा हो रहे हैं तो दूसरे गजनवी को पढने की जरूरत क्या है। किसी समय बच्चों को सुनाई जाने वाली अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानी भी बेमानी हो गई है। उस कहानी में टके सेर मिलने वाली भाजी और खाजा अब सोने की कीमतों से मुकाबला कर रहा है।

Thursday, January 6, 2011

तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है

(सुनील) www.sunilvani.blogspot.com 7827829555


ऐ दोस्त तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है
की तू जब चाहता है तब खाता है
और हमें जब मिल जाय तब खाते हैं.
ऐ दोस्त तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है
की तू वो परिधान पहनता है,
जिसमे एक भी पैबंद न हो
और हम वो वस्त्र पहनते हैं
जिसमे दो-चार पैबंद न हो.
ऐ दोस्त तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है
की तेरे पांव जमीन पे नहीं पड़ते
और हम मीलों यूँ ही निकल जाते हैं.
ऐ दोस्त तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है
की तू अपने बूढ़े माँ बाप को ओल्ड एज होम में रखता है
और हम आज भी अपने रोम रोम में
ऐ दोस्त तेरे और मेरे में बस इतना फर्क है......

Monday, January 3, 2011

पति पत्नी मिलके कमात है, फिर भी....

(सुनील) 7827829555

अब तो पति पत्नी मिलके कमात है,
फिर भी बच्चा भूखे सोवत है.
किचेन में अब खाली डब्बा दिखत है,
बच्चा हमर भूखे सोवत है.
दूध-दही के नामों न निशानी,
अब तो माँ के छाती भी सुखत जात है.
नेता मंत्री तो खूबे मजा लेत है,
आम जन मरत जात है.
अब तो पति पत्नी मिलके कमात है,
फिर भी भर पेट नहीं भोजन मिलत है.