Monday, February 28, 2011

नेट के जरिए बढ़ रहा लव, सेक्स और धोखा

(sunil) 7827829555
प्यार अंधा होता है और इसमें पड़कर इंसान कभी-कभी इतना बेबस हो जाता है कि वह अच्छे-बुरे की पहचान भी नहीं कर पाता। फिर उसके पास पछताने के अलावा शेष कुछ भी नहीं रह जाता। लव, सेक्स और धोखा फिल्म की तर्ज पर ऐसा ही एक मामला प्रकाश में आया है। जहां केरल के एक बैंककर्मी युवक ने दिल्ली की एक विधवा महिला से इंटरनेट के जरिए संपर्क बढ़ाया। यह संपर्क प्रेम में बदलते देर न लगी और एक दिन युवक ने जब शादी का प्रस्ताव रखा तो महिला ने भी अपने अकेलेपन को देखते हुए हांमी भर दी। कुछ दिन तक तो सबकुछ ठीक चलता रहा लेकिन जब महिला ने उस पर साथ ले जाने के लिए दबाव बनाया तो उसे छोड़कर वह फरार हो गया। अब महिला अपनी फरियाद लेकर जगह-जगह जा रही है लेकिन जीवन भर शायद ही वह इस हादसे से उबर पाए। यह घटना हर खासम-खास के लिए एक सबक है जो प्यार में पड़कर अपना सबकुछ गंवा देते हैं। प्यार करने में कोई परहेज नहीं पर प्यार के लिए दिल और दिमाग दोनों अपने साथी के प्रति खुला रखें ताकि प्यार अंधा न कहलाए और आप धोखा न खाएं।

Sunday, February 20, 2011

लिव इन रिलेशन में मिल रही मासूम को सजा

 (सुनील) 7827829555
अदालत ने भले ही लिव इन रिलेशनशिप को स्वीकृति दे दी है और समाज का कुछ खास तबका इसे स्वीकार भी करने लगा है, फिर भी आए दिन इसे लेकर कुछ ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जो इस प्रकार के संबंधों पर कई तरह के प्रश्न खड़े कर देते हैं। आखिर इस तरह के रिलेशन कितने विश्वसनीय होते हैं।
नई दिल्ली के बी.एल कपूर मेमोरियल अस्पताल में ऐसा ही एक मामला देखने को मिला जिसने समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है। जानकारी के मुताबिक मणिपुर की रहने वाली एक युवती जो अपने ब्यॉय फ्रेंड के साथ लिव इन रिलेशन में दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में रहते हैं। पिछले अप्रैल में जब वह युवती गर्भवती हो गई तो दोनों ने मिलकर गर्भपात करा लिया। इसके बाद वह फिर से गर्भवती हो गई लेकिन इस बार उसे पता नहीं चल पाया। प्रसव पीड़ा शुरू होने पर जब उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया तो उसने एक बच्ची को जन्म दिया लेकिन वह युवक उससे मिलने नहीं आया। डाक्टर उसे अब डिस्चार्ज करने चाहते थे लेकिन युवती का कहना था कि वह इस स्थिति में नहीं कि वह अपनी बच्ची का पालन-पोषण कर सके। दोनों के परिवार वाले पहले ही उनसे संबंध तोड़ चुके हैं। अब वह युवती इस बच्ची को बेचना चाहती है या अनाथालय में उसे डालना चाहती है। वह उस युवक से शादी नहीं करना चाहती बल्कि अभी भी लिव इन में ही रहना चाहती है। पुलिस पहले ही इसे सामाजिक मामला बताकर पल्ला झाड़ चुकी है। इन सबके बीच अब देखना है कि उस बच्ची का क्या होगा। आखिर बिना कसूर के ही उसे सजा क्यों मिल रही है।

Thursday, February 17, 2011

सरकार की व्यथा....

(सुनील) 7827829555


उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते चले गए,
वो जीते रहे, हम मरते रहे
ये सिलसिला यूं ही चलता रहा
फिर पांच साल बाद वो याचक बन खडे हुए,
हमने फिर उनका स्वागत किया
और उसी मजबूरी का 'हाथ' पकड,
हम यूं ही चलते रहे
उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते रहे...
गठबंधन और भ्रष्टाचार जैसे चोली-दामन बन गया,
राजा और नीरा का नया लॉबिस्ट बन गया
अब तो खेल-खेल में रुपयों से अपना घर भरने लगा
स्टेडियमों में खिलाडी नहीं कलमाडी पैदा होने लगा
वो मजबूरियां गिनाते रहे, हम सजा भुगतते रहे...
जमीन से आसमां तक,
समुद्र से पाताल तक,
नहीं कोई अछूता रहा
हर दिल में पाप है,
अब कहां कोई सच्चा रहा।
आज फिर जब उनसे रूबरू हुए
उसी व्यथा ले बैठे रहे
मजबूरियों का दामन ओढे
वो जीते रहे, हम मरते रहे......

Sunday, February 13, 2011

आओ मनाएं भारतीय प्रेम दिवस

(सुनील) 7827829555

पश्चिमी सभ्यता को बिना देरी और बिना झिझक अपनाने वाले हम भारतीय पिछले कुछ सालों से वैलेंटाइन डे को इस तरह से मनाने लगे हैं, जैसे भारत का यह अभिन्न त्योहार रहा हो। ये अलग बात है कि वैलेंटाइन मनाने वाले बहुत कम युवक-युवतियों को पता होगा कि आखिर यह मनाया क्यों जाता है। वैसे देखा देखी करना भी हम भारतीयों की कई आदतों में से एक है। सो वैलेंटाइन भी देखा-देखी मनाने लगे। इस चीज का विरोध करने वाले भी कम नहीं हैं। क्योंकि 14 फरवरी को इस रूप में मनाया जाता है कि यह केवल प्रेमी युगलों के लिए ही है। खास कर नवयुवक-नवयुवतियों के लिए। तो अब भला जिसमें बडे-बुजुर्ग शामिल न हों तो उन्हें तो खराब लगेगा ही, और जिनके जोडे नहीं हैं, वे भी विरोधियों के लिस्ट में शामिल हैं। अतः भारतीय परंपरा के अनुरूप वैलेंटाइन डे को कुछ इस रूप में मनाया जाए जिससे एक विशेष वर्ग नहीं अपितु सभी संप्रदाय, सभी उम्र के, सभी वर्ग के लोग शामिल हों। ताकि कहीं से कोई विरोध का स्वर न उठे और भारतीय संस्कृति और परंपरा की गरिमा भी बनी रहे। तो क्यों न हम इसे 'भारतीय प्रेम दिवस' के रूप में मनाएं जहां बडे-बूढों का प्रेम-आशिर्वाद भी शामिल हों। जहां छोटे से लेकर बडे तक इस भारतीय प्रेम दिवस में शामिल हो सकें और दुनिया को प्रेम का पाठ पढाने वाले हम भारतीयों को किसी और से सीखने की जरूरत न पडे बल्कि हम अपनी परंपरा और संस्कृति में दूसरे को भी समाहित हो जाने को मजबूर कर दें।

Saturday, February 12, 2011

कृषि और किसान सबसे बडा कॉरपोरेट जगत

(सुनील) 7827829555



भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बडी नींव हमारे देश के कृषि और किसान हैं। बावजूद इसके इनकी लगातार उपेक्षाएं की जा रही हैं। हर बार किसी न किसी कारण से सरकार की नीतियों का शिकार इन्हें ही होना पडता है। सरकार भले ही कितने दावे कर ले लेकिन किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं कम नहीं हो रही हैं। पंचवर्षीय योजनाएं भी किसानों के लिए छलावा ही साबित हो रहा है। गौर करने लायक बात यह है कि अनाज की कीमतें भले ही कितनी बढ जाए, उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। आज हम महंगाई की मार से त्रस्त हैं। इस महंगाई का असर सबसे ज्यादा खाद्य वस्तुओं पर ही पडा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृध्दि कर दिया है जिसके कारण बाजार पर इसका असर पडा है। सच तो यह है कि किसानों की स्थिति तो स्थिर बनी हुई है। पैदावार कम हो तो भी किसानों की मुसीबत और ज्यादा हो तो भी किसानों की मुसीबत। बाजार और कृषि के बीच सामंजस्य बनी रहे और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम पर खाद्य पदार्थों की आपूर्ति बनी रहे इसके लिए सरकार को कृषिगत नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। यानी एक ऐसे हरित क्रांति की पुनः आवश्यकता है जो किसानों को उनका समुचित हक दिलवा सके। देश की अर्थव्यवस्था में भले ही कॉरपोरेट जगत की कितनी भी बडी सहभागिता हो लेकिन हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि उनकी भी नींव तभी मजबूत रह सकती है जब कृषि और किसान खुशहल हों। आखिरकार जिस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो, उस देश का सबसे बडा कारपोरेट जगत तो किसान और कृषि को ही कहा जा सकता है।

Thursday, February 10, 2011

मक्खनवादी हैं हम भारतीय

(सुनील) 7827829555

हम भारतीय कई सारी खूबियों से लैस हैं। दुनिया के कोने-कोने में हम छाए हुए हैं। इसका एक सबसे बडा कारण हम दूसरों को मक्खन(मस्का या चाटुकारिता) लगाने में माहिर हैं। कभी बातों से मक्खन लगाकर, कभी जी हजूरी करके, कभी हां में हां मिलकार तो कभी जूते तक साफ करके हम अपने मक्खनवादिता होने का परिचय देते रहते हैं। कभी भी इस तरह के अवसर को हम चूकने नहीं देते। आगे बढने के लिए इसका बखूबी इस्तेमाल किया जाता है। यह हर क्षेत्र में मान्य है। सरकारी से लेकर निजी संस्थानों तक। किसी को अपनी तरक्की चाहिए तो इसके लिए मक्खन लगाना पडता है, तो किसी को वेतन बढोतरी के लिए मक्खन लगाना पडता है, कोई कामचोरी के लिए मक्खन लगाता है, तो कोई अपना काम निकालने के लिए मक्खन लगाता है। और कोई योग्यता हो न हो पर आगे बढने के लिए इस मक्खनवादी योग्यता का होना जरूरी है। वरना आप सबकी नजर में खटकते रहेंगे। हालांकि इस मामले में हम भारतीय स्वतः सर्वगुण संपन्न हैं। बिना प्रशिक्षण के ही हम इसमें प्रशिक्षित हो जाते हैं। दफ्तरों में यह तो सामान्य बात है, जो जितना मक्खन लगाता है, उसके चेहरे पे मुस्कान सदैव देखा जा सकता है, और आपमें यह कला नहीं है तो आपके चेहरे में हमेशा तनाव बना रहेगा। अब देखिए न मायावती का जूता साफ करके उसने अपने मक्खनवादी होने का परिचय दिया और अपने से जूनियर को यह संदेश भी दे दिया कि किस तरह से अपने से सीनियर को मक्खन लगाया जाता है। इसी तरह संसद सुचारु रूप से चलाने के लिए सरकार लगातार विपक्ष को मक्खन लगा रही है। हालांकि पुराने जमाने में ठाकुर के पैरों के नीचे बैठ के कइयों को मक्खन लगाते फिल्मों में देखा है लेकिन अब साक्षात अब पत्रढे-लिखे गंवार को मक्खनवादिता को परिभाषित करते देखा जा सकता है।

Wednesday, February 9, 2011

खून के रिश्तों के साथ खूनी खेल

सुनील वाणी
(सुनील) 7827829555

 हाल के समय में रिश्तों से जुडे ऐसे ऐसे कत्ल और हत्याएं देखने को मिली है कि एकबारगी यह सोचने पर जरूर मजबूर करता है कि क्या यह वही देश है जहां संस्कृति व परंपरा और पारिवारिक रिश्तों का अद्भुत मिलन और उसकी पवित्रता पर हमें गर्व होता था। आपको विगत कुछ दिनों में हुए पारिवारिक हत्याओं से जुडे कुछ सच्चाई से रूबरू कराता हूं जो कि समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में क्राइम के मामले में सुर्खियों में रहे। एक आधुनिक बीपीओ पत्नी ने अपने पति की हत्या कर दी, केवल इसलिए कि उसके पति के विचार आधुनिक नहीं थे और इस कारण उनसे मेल जोल नहीं खाते थे। दूसरा, एक ब्यूटिशियन पत्नी ने अपने विकलांग पति की हत्या कर दी, क्योंकि विकलांग पति से उसे सुख नहीं मिल पा रहा था(चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक)। एक बहन ने अपने भाई की इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वह उसके प्रेम में रोडा बन रहा था, इसमें उसके पिता ने भी बखूबी साथ दिया। एक पोते ने पैसे के लिए अपनी दादी की हत्या कर दी। एक बेटे की ख्वाहिश पूरी न होने पर उसने अपने पिता की हत्या कर दी। इस तरह और न जाने कितने सारे उदाहरण हैं जो रिश्तों की पवित्रता और इसकी मजबूती पर सवाल उठा रहे हैं। इस देश की जो पारिवारिक पहचान है वह दुनिया के कोने-कोने में प्रसिध्द है। पर अब इन रिश्तों पर ही सवालिया निशान उठने लगे हैं। इन घटनाओं को देख कर तो ऐसा लगता है कि कौन किसकी हत्या कर दे, समझ से परे हैं। रिश्तों की ये सामंजस्य जैसे खत्म होता जा रहा है। रिश्तों की जो हमारी मजबूत बुनियाद थी, वो खत्म होते जा रही है। कहीं पश्चिमी सभ्यता में ढलने का तो यह नतीजा नहीं है। अगर ऐसा है तो फिर क्यूं न हम अपनी भारतीय सभ्यता से ही जुड जाए जहां अपने रिश्तों का ही नहीं बल्कि दूसरों के रिश्तों का भी सम्मान किया जाता है।

Sunday, February 6, 2011

वेतन किसकी बढी, सजा सबको मिली

सुनील वाणी
(सुनील) 7827829555

सरकार द्वारा महंगाई को लेकर बार बार आ रहा यह बयान 'महंगाई का प्रमुख कारण लोगों की आमदनी बढना है', थोडा हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए। क्या वो वेतन वृध्दि के खिलाफ है, या वो बचत के खिलाफ हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि आम आदमी के वेतन में बढोतरी हुई है तो महंगाई के लिहाज से वह कल जहां था आज भी वहीं खडा है। इस महंगाई ने तो बचत करने का अवसर ही छीन लिया। यदि आज के वर्तमान समय की पिछले कुछ वर्षों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो क्या आमदनी उस अनुपात में बढी है जिस अनुपात में महंगाई बढी है। रसोई से लेकर शिक्षा तक, मकान किराया से लेकर परिवहन किराया तक सब कुछ बेहिसाब बढ गया है। दूसरी अहम बात यह है कि आमदनी किसकी बढी है, सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की। वे समय दर समय और विशेष अवसरों पर लाभान्वित होते रहते हैं और सरकार के पास भी इनका सही लेखा-जोखा होता है। लेकिन हम इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों और स्वरोजगार या मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों की तादाद कहीं सरकारी क्षेत्रों में कार करने वाले लोगों से अधिक है। दिलचस्प पहलू यह है कि ऐसे निजी कंपनियों की भरमार है, जहां केवल वेतन से ही काम चलाना पडता है, वेतन भी ऐसा कि एक आदमी अपना पेट मात्र ही भर सके, परिवार तो बहुत दूर की बात है। ऐसे संस्थानों और कंपनियों में मौखिक रूप से वेतन तय कर दी जाती है। अब जब तक वो वहां काम करेगा इसी वेतन पर काम करता रहेगा। न कोई सलाना वृध्दि, न कोई बोनस, न महंगाई भत्ता और न ही अन्य भत्ता। फिर तो पीएफ की तो बात ही करना बेकार है। महत्वूपर्ण बात यह है कि इन संस्थानों में मौखिक वेतन ही नहीं बल्कि मौखिक रूप से नियुक्तियां भी हो जाती है। यानी संस्थान को जब आपकी आवश्यकता नहीं होगी, आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। आपका कोई रिकार्ड नहीं होने के नाते आप इन पर किसी तरह का क्लेम भी नहीं कर सकते। गरीब तबके की बात की जाए- जैसे रिक्शाचालक हो या और कोई मजदूर हो तो उनका भी वेतन के मामले में सबकुछ नियत ही होता है, जिसके साथ और कुछ भी जुडा नहीं होता। तो फिर वेतन किसकी बढी है लेकिन सजा तो हम सब भुगत रहे हैं।