Thursday, July 15, 2010

आज के युवा पत्रकार और हम

(सुनील)

मीडिया की दुनिया में दिखने वाला चमक-दमक और प्रभाव ने मीडिया संस्थानों में छात्रों की संख्या में काफी वृध्दि कर दी है। युवाओं का रूझान हाल के समय में इस ओर काफी बढा है। दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में तो मीडिया छात्रों की तो बाढ सी आ गई है। विभिन्न राज्यों से आने वाले छात्र कोर्स करने के बाद यहीं के होकर रह जाते हैं। एक तो मीडिया की धूम और दूसरा राजधानी का आकर्षण ये दोनों चीजों छात्रों पर इस कदर हावी हो जाती है कि वह यही का होकर रह जाता है। हालांकि मैं भी झारखंड से आकर यहीं बसने की कोशिश में लगा हुआ हूं। यहां तक तो ठीक है लेकिन पत्रकारिता कोर्स करने के बाद जो कौशल और हुनर छात्रों में देखने को मिल रहा है, वो हैरान करने वाली है। कभी-कभी तो लगता है कि क्या छात्र केवल मीडिया का आकर्षण और उसके प्रभाव को देखकर ही इसमें आने का फैसला कर लेते हैं। पत्रकारिता के उपरांत कई ऐस छात्र देखने को मिल रहे हैं जिनके लेखन शैली को देखकर आश्चर्य होता है, जबकि पत्रकारिता का सबसे महत्वपूर्ण कडी है लेखन शैली और शब्दों के साथ खेल। अतः जब इनका सूझबूझ ही नहीं है तो फिर पत्रकारिता काहे का। शायद यही कारण है कि पत्रकारिता के स्तर में गिरावट देखने को मिल रहा है। हालांकि मैं खुद अभी एक अच्छी सी जॉब की तलाश में हूं। जब मैं कहीं नौकरी की तलाश में किसी अखबार कार्यालय या टीवी चैनल के कार्यालय पहुंचता हूं तो मेरा बॉयोडाटा देखने के बाद सामने वाले के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान और चेहरे के हाव-भाव देखकर यही लगता है जैसे कोई ज्ञानी के सामने एक अज्ञानी खडा होकर अपनी कलम प्रवीणता दिखने की जिद कर रहा हो। अलबत्ता कलम की दक्षता दिखाने से पहले ही उनका आश्वासन जिसे की टाल मटोल कहा जा सकता है, शुरू हो जाता है। लेकिन सोचता हूं इसमें वो भी क्या कर सकते हैं, छात्रों की बढती संख्या के कारण दिनभर में कई ऐसे पत्रकारिता करने वाले बेरोजगारों से रूबरू होना पडता होगा। उनकी नजर में तो सभी पत्रकार एक ही पंक्ति में नजर आते होंगे। कलम का कौशल दिखाने का अवसर ही कहा मिल पाता है। ऐसे में हम जैसे युवा पत्रकारों को एक ही डर सताता रहता है कि जिनके पास सिफारिश नहीं क्या उन्हें जॉब नहीं मिल पाएगा।

Wednesday, July 7, 2010

जनता लाचार, विरोधी बीमार, सरकार बेकार

(सुनील)

बर्दाश्त से बाहर होती जा रही महंगाई न जाने आने वाले दिनों में किस मुकाम तक पहुंचेगी। हालांकि इसे मुकाम तक पहुंचाने वाले प्रतिदिन कुछ ऐसे बयानों से रूबरू कराते हैं, जिसे सुनकर जनता केवल 'उफ महंगाई, हाय-हाय मंहगाई' करके रह जाती है और इस महंगाई का विरोध करने वाले सब कुछ बंद की तैयारी में जुट जाते हैं। एक महंगाई को सफल बनाने में लगा हुआ है तो दूसरा बंद को सफल बनाने में।
सरकार सभी चीजों को नियंत्रण मुक्त किए जाने पर जोर दे रही है। डर तो इस बात का है कि इस चक्कर में कहीं देश का बागडोर नियंत्रण मुक्त न हो जाए। कश्मीर पहले से ही नियंत्रण मुक्त चल रहा है। ऐसे में महंगाई से ऊब कर जनता का मूड बिगड गया तो देश भी आपके हाथों से कहीं नियंत्रण मुक्त न हो जाए। वैसे भी आजकल हाथ का साथ पाकर डर लग रहा है, इसलिए मैं तो अब अपने लोगों के हाथों से भी दूर रहता हूं। हालांकि फूल के चक्कर में कहीं 'फूल' न बन जाऊं और कीचड में अपने आप को धंसा हुआ पाऊं, इस बात से भी उतनी ही डर लगता है। बेचारी जनता करें भी तो क्या करे। हर तरफ से परेशानी ही परेशानी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या वाकई देश में ऐसी परिस्थितियां बनती जा रही हैं कि वस्तुओं की कीमतों में इजाफा करना जरूरी हो गई है। यदि हां, तो आने वाला समय काफी भयावह हो सकता है। एक समय जब देश का कमान एक जाने माने अर्थशास्त्री के हाथों में जा रहा था तो लोगों को सुकून था कि चलो महंगाई से काफी हद तक नियत रहेगी। लेकिन ठीक इसके उलट कीमतें अनियमित दर से बढती ही जा रही हैं। आमदनी अठन्नी और न चाहते हुए भी खर्चा रुपया करना पड रहा है। जनता तो पानी-पानी, नहीं-नहीं-नहीं... बेपानी हो रही है, क्योंकि अब पानी भी सस्ता कहां रहा। ऐसे में सरकार की यह मनमानी कब तक चलेगी।