Thursday, June 17, 2010

मां कैसे जीएंगे हम?

(सुनील)
जुडवां बच्चे इस संसार में आने की तैयारी कर रहे थे। अपनी मां की कोख में दोनों ही बच्चे मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे और इस दुनिया में आने का इंतजार कर रहे थे। दोनों एक दूसरे की आंखों में देखकर अपने भविष्य के सपने संजो रहे थे। मां जब प्यार से अपने कोख को स्पर्श करती तो उस छूअन से दोनों बच्चे गदगद हो जाते और उस स्पर्श से उन बच्चों को अपने माता-पिता को देखने की उत्सुकता और बढ जाती है। जल्द से जल्द इस दुनिया में आने और लोगों का प्यार पाने को उतावले हो रहे हैं। मगर इसी बीच उन्हें महसूस हुआ कि मां-पापा कुछ परेशान से हैं। बेचैनी किस बात की है यह उन्होंने जानने की कोशिश की। जब ध्यान से सुना तो उन्होंने अपने पापा को मां से कहते हुए सुना कि देखो महंगाई काफी बढ गई है, इसलिए हमें थोडा-थोडा खाकर ही गुजारा करना पडेगा। इस पर मां अपने पेट को छूते हुए मगर बच्चे...। चिंता मत करो उन्हें भी दुनिया में आने से पहले ही आदत पड जाएगी। इन बातों को सुनने के बाद दोनों ही एक दूसरे को देखकर यह जानने का प्रयास करते हैं कि क्या महंगाई बढने से रोटी नहीं मिलती। भरपेट खाने को नहीं मिलता। हमारे माता-पिता शायद इतने गरीब हैं कि उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है। कितने दुखी है वो। फिर हम क्या खाएंगे! हमें उनके लिए कुछ करना चाहिए। अगर हम भी इस दुनिया में आ गए तो उनकी मुश्किलें और बढ जाएंगी। फिर एक ने दूसरे से सवाल किया- भईया सरकार कुछ करती क्यों नहीं। वो दाम कम क्यों नहीं करती। भूख की पीड़ा तो सबको बराबर ही होती है, तो फिर गरीब की भूख के बारे में कोई क्यों नहीं सोचता। दोनों ही एक दूसरे की निगाहों में जिज्ञासावश देखते हैं, मानों मन ही मन अपने माता-पिता के लिए कुछ करने की सोच रहे हों-

कैसे जीएंगे हम, इतनी महंगाई में
आओ कुछ करें, अपनी मां की कोख की गहराई में ।
फिर अचानक से सब कुछ शांत हो गया। दोनों बच्चे मां की कोख में एक-दूसरे को गले लगाए अपने माता-पिता को भूख से तडपता देख महंगाई से लड बैठते है और अंजाम फिर से एक बार वही...... सबकुछ वैसा का वैसा ही। क्या उबर पाएंगे हम इस महंगाई से? या ऐसे ही बच्चे दुनिया में आने से पहले ही.....जरा सोचिए!

Monday, June 14, 2010

तुस्सी ग्रेट हो नेताजी



कहतें हैं नेता बयान देने में काफी माहिर होते हैं। किसी भी समस्या या आरोपों को लेकर पूछे गए सवालों पर वह बहुत ही बेबाकी से जवाब देकर अपनी और अपनी पार्टी को पाक साफ बताने की पूरी कोशिश करते हैं। अभी भोपाल गैस कांड का फैसला आने के बाद कई लोग कई तरह के बयान दे रहे हैं। हां, इस बार कुछ महारथी ऐसे भी हैं जो चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। लाशों के ढेर पर भी जिन्हें नींद आती हो उनसे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। उस पर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो उस सोने वालों को अब उन लाशों का रखवाला बता रहे हैं। ऐसा ही एक बयान एक वरिष्ठ नेता का सुनने को मिला। जिसमें उन्होंने कहा है कि 'उनके पास और कोई विकल्प नहीं था, उस वक्त लोग गुस्से में थे और वारेन एंडरसन को बाहर निकालना अर्जुन सिंह का सही फैसला था।' वाह लज्जा नहीं आई, जब भारतीयों के जमीन पर भारतीय तडप-तडप कर मर रहे थे तो क्या लोगों को उस वक्त एंडरसन दिखाई पड रहा था और जिनको एंडरसन दिखाई पड रहा था वो तो उसे लोगों के लाशों पर चलकर उन्हें ससम्मान विदाई दे रहे थे। इतने लोगों को एक साथ मौत देना क्या आसान बात है, पल भर के लिए तो अच्छे से अच्छा जल्लाद भी कांप जाए। ऐसे में तो एंडरसन को पुनः वापस बुलाकर डी-लिट की उपाधि प्रदान करनी चाहिए थी। इनकी हरकतों को देखकर तो ऐसा लगता है कि इनके अंदर की इंसानियत तो बिल्कुल मर चुकी है। पीड़ित समुदाय तो इतनी बडी आपदा पहले ही झेल रही थी, दूसरा चोट फैसले ने दे दिया और रही सही कसर इन नेताओं के बयान ने पूरी कर दी। क्या हम भारतीय इतने कमजोर हैं जो किसी के दबाव के आगे इतने मजबूर हो जाते हैं कि अपने ही लोगों के लाशों पर चलकर एक अपराधी को जंग में जीते हुए सैनिक की तरह विदा करते हैं। स्थितियां तो उस समय भी बडी विकट रही होंगी जब आतंकियों ने ताज को निशाना बनाया था तो कसाब को भी क्यों पकडा। उसे भी बाइज्जत पाकिस्तान तक छोड कर आते।

Friday, June 11, 2010

हे, ईश्वर कहाँ हो तुम

(सुनील)
चल ऐ मन इस शहर से दूर चल
थक चुका है तन इस शहर से दूर चल
क्या कहें, किसको कहें, कैसे करें दर्द बयां
महंगाई ने इस कदर मारा है मुझको
अब तो रोटी का भी हमसे नाता टूट चुका है
बड़े अरमां से आये थे इस इस शहर में
छोटा सा अशियाँ बनाने को
मगर गिरवी रख चुका हूँ, तन एक रोटी पाने को
बीवी का मुरझाया चेहरा,
बच्चों की तरसती आँखे
कोई उमंग, न कोई तरंग
घूम रहे हैं इस शहर में नंग धडंग
कचोटता है मुझको मेरा मन
परिवार की हालत देखकर
खोजता हूँ हर कोने में
खाने को अन्न
कब तक चलेगा महंगाई का ये खेल
जीवन जीना हो गया मुश्किल
हे इश्वर कहाँ हो तुम
अब तो बस तेरा ही सहारा है

Thursday, June 10, 2010

कैसे कोई मेहनत की रोटी खाए!


सुनील
दुःखों का अंबार है, आसूंओं की धार है,
क्या हम गरीबों की जिंदगी, जानवरों से भी बेकार है।
बडी-बडी समस्याओं से हम हमेशा रूबरू होते हैं। मीडिया, न्यूज पोर्टल, ब्लॉग हर जगह इनकी चर्चा होती है। उन्हीं मुद्दों में कुछ ऐसे अनछुए पहलू रह जाते हैं, जिनसे हमारा वास्ता तो प्रतिदिन होता है लेकिन उन समस्याओं पर हम गौर नहीं कर पाते और न ही उनके लिए कहीं से कोई आवाज उठती है। अभी कुछ दिनों से देख रहा हूं कि शकरपुर(दिल्ली, जहां मैं फिलहाल रहता हूं) रोड पर रेहडी लगाने वाले(जिनमें फल और सब्जी वाले होते हैं) अपने अपने ठेली लेकर इधर-उधर भागते नजर आ रहे हैं। मैंन एक ठेली वाले से पूछा, क्यों भाई ऐसे क्यों भाग रहे हो। तो उसने कहा पुलिस वाले निरीक्षण के लिए आ रहे हैं। पकडे जाने पर सारा सामान ले जाते हैं। मैंने फिर से पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। इस पर उसका जवाब था कि मुझे ठीक से तो पता नहीं पर यहां कोई खेल होने वाला है और विदेशों से बहुत मेहमान आने वाले हैं। इसलिए हमें यहां से हटाया जा रहा है। ऐसी स्थिति दिल्ली में और न जाने कितने जगह होगी। कैसी विडंबना है कि एक समय था जब विदेशी हमारे देश में आकर भारतीयों को सालों तक शोषण करते रहे और अब विदेशियों को ससम्मान लाने के लिए एक भारतीय ही भारतीयों पर अत्याचार कर रहा है। हम शायद उन्हें यही दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि तुम्हारे जाने के बाद भी गरीब भारतीयों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आखिर विदेशियों को तकलीफ क्यों हो, दर्द सहने की आदत तो भारतीयों को वरदान में मिली हुई है। खेल के नाम पर न जाने गरीबों के साथ कौन-कौन से खेल खेले जाएंगे। अगर इसी तरह खेल के नाम पर गरीबों को सताया जाता रहा तो कैसे कोई ईमानदारी की रोटी खा पाएगा। क्यों हम अपने ही घर में परायों के जैसे जीने को मजबूर हैं। क्या इसके लिए कोई समुचित उपाय नहीं निकाला जा सकता, ताकि मेहनत करने वाले मेहनत की ही रोटी खा सकें।

Tuesday, June 8, 2010

क्या इसी को इंसाफ कहते हैं?



आत्मा को झकझोर देने वाली और हृदय विदारक घटना भोपाल गैस कांड, न्याय की आस में आंखे तो पहले ही पथरा चुकी थी, रही सही कसर फैसला आने के बाद ने पूरी कर दी। हजारों लोगों के जुबान पर शायद यही बात रही होगी जब वर्षों बाद भोपाल गैस कांड का फैसला(जिसका शायद अब उन पीड़ित परिवारों के लिए कोई मतलब नहीं रहा) आया। जिस लापरवाही ने हजारों हजार जिंदगियो को लील लिया और जिसका खामियाजा आज भी वहां के लोग भुगत रहे हैं, उनके लिए यह फैसला उनके जखमों को फिर से हरा कर देने वाला है। हमारी न्याय प्रणाली की यह विवशषता ही है कि न्याय की आस में पीड़ित परिवार को वर्षों पल-पल जलना पीड़ित है, जो उसके दर्द को और दोगुना कर देता है। उस पर भी जब न्याय इस तरह का हो तो मृत आत्मा और पीड़ित परिवार के साथ इसे मजाक ही कहा जा सकता है। क्या उस त्रासदी को भुलाया जा सकता है, जब दफनाने के लिए जमीनें कम पड़ गई थीं, एक ही कब्र में कई लाशों को दफनाया जा रहा था। ट्रक भर-भर कर लाशों को नदियों में फेंका जा रहा था, जैसे कूडा उडेल रहे हो। स्थिति ऐसी कि मरने वालों के लाशों पर कोई रोने वाला नहीं बचा था, और जो थे उनकी आंखों के आंसू तक खत्म हो चुके थे। लाशों की नगरी बन चुकी शहर जिसमें बडे-बुढे, बच्चे-महिलाएं यहां तक की जानवर भी तडप-तडप कर मौत की आगोश में समा रहे थे। ऐसे में हजारों मौतों के लिए सिर्फ दो साल की सजा क्या न्यायोचित है? उस पर भी ऐसा कि सजा के तुरंत बाद दोषियों को बेल मिल जाए।
मैं हमारे देश के न्यायपालिका व्यवस्था पर अंगुली नहीं उठा रहा। मैं इसका तहे दिल से सम्मान करता हूं। लेकिन फिर भी हाल के कुछ दिनों में ऐसे फैसले आए हैं जिनके लिए पीड़ित परिवार को वर्षों इंतजार करना पडा है। ऐसे में मन में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि क्या कुछ खास घटनाओं को विशेष श्रेणी में रखकर उसका जल्द से जल्द निपटारा नहीं किया जा सकता, जिससे पीड़ित परिवारों के लिए न्याय का मान बना रहे और न्यायपालिका की गरिमा भी बरकरार रहे। आप क्या सोचते हैं?

Thursday, June 3, 2010

भारतीय परंपरा का निर्वाह करती हमारी टीम इण्डिया



कहते हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता की विश्व में एक अलग ही पहचान है। हमारा देश अनेकता में एकता का देश है। इस परंपरा का निर्वाह फिलहाल हमारे भारतीय टीम के खिलाडी कर रहे हैं। अच्छे-अच्छे महारथी टीम को पछाड देने वाली हमारी भारतीय टीम को एक कमजोर माने जाने वाली टीम से शिकस्त का सामना करना पड रहा है। इसे अन्यथा ने लें और न ही हमारे टीम की खिलाडियों की योग्यता को कम करके आंका जाना चाहिए। वो तो बस हमारे भारतीय परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। हमारी परंपरा 'अपने से कमजारे को मत सताओ, न ही उसका शोषण करो।' इसी रास्ते पर हमारी भारतीय टीम भी चल रही है। वैसे भी गांधी जी की 'करो या मरो' का नारा का निर्वहन हमारे भारतीय खिलाडी ही तो सबसे ज्यादा करते आए हैं। हमारी टीम इंडिया जब तक किसी भी मैच में करो या मरो की स्थिति उत्पन्न न कर दें, तब तक उन्हें खेल का मजा ही नहीं आता। इधर मीडिया वाले भी लगातार हमारी टीम इंडिया के खिलाडियों की हौसला अफजाई करने से नहीं चूकते। ऐसी स्थिति में हर चैनल में एंकर यही बोलते नजर आते हैं। 'आज का मैच टीम इंडिया के लिए करो या मरो जैसा है।' गांधी जी जहां कहीं भी होंगे, उनका दिल बाग-बाग हो जाता होगा। गर्व से सिर ऊंचा हो जाता होगा। तो गर्व से कहो हम भारतीय हैं।

Wednesday, June 2, 2010

अब हो रही हैं अपने सेहत की चिंता



पिंजडे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोय.... । यह सच है कि किसी व्यक्ति की पीडा कोई और नहीं समझ सकता जबतक कि खुद इस पीड़ा से न गुजरना पडे। खबर है कि राठोड़ साहब को जेल की हवा रास नहीं आ रही है। उनकी सेहत बिगडती जा रही है। आज वे अपनी सेहत को लेकर दुहाई दे रहे हैं। जिसने अच्छे भले परिवार की सेहत बिगाड कर रख दिया। अपने बीमारी का रोना रो रहे हैं। क्या कभी ये भी सोचने की कोशिश कि पिछले एक दो दशक से एक पूरे परिवार की जिंदगी तुम्हारे कारनामों की वजह से कैसे बीमार हो गई। अपने रुतबे का गलत इस्तेमाल कैसे किया जाता है, इसका जीता जागता सबूत राठोड़ ने दे दिया है और आज जब अपने जिंदगी के कुछ पल जेल में गुजराने पड रहे हैं तो तिममिला उठे। वो परिवार किस तरह तिल-तिल कर जला होगा, जब गिहरोत्रा परिवार की बेटी ने तुम्हारी असहनीय पीडा से तंग होकर अपने आप को मौत के हवाले कर दिया। अगर अपने ओहदे का इस्तेमाल कर किसी मासूम की इज्जत की रक्षा की होती तो तुम्हारे ये मुस्कान में चार चांद लग गए होते, लेकिन इस कुकृत्य के बाद तुम्हारे चेहरे पर ये मुस्कान रावण की याद दिलाती है, जिसका दहन होना जरूरी है।