Monday, December 13, 2010

darane laga hain ye shahar

सुनील कुमार


डर लगने लगा है इस शहर से,

हर घडी, हर पहर में

राह चलते डराती हैं उनकी नजरें

बस अब तो हर चेहरे में

अपराधी और बदमाश ही नजर आता है मुझे।

भ्रष्टाचार, बलात्कार और अत्याचार,

बन गई है इस शहर की पहचान,

अब तो हर अपना भी,

अनजान लगने लगा है मुझे।

जिन गलियों में गुजरते थे बेवाकी से

शाम ढलते ही बेगाना सा हो जाता है

क्या बताऊं तुझे ऐ शहर

अब तो अपना दरवाजा भी बेगाना लगने लगा है मुझे

13दिसंबर

1 comment:

  1. बहुत बढ़िया कविता। आजकल सच में डर हमारे भीतर तक घुस गया है।
    दुष्यंत कुमार का एक शेर याद आ गया-

    इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात
    अब किसी भी बात पर खुलती नहीं है खिड़कियाँ

    पहली बार आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा।

    सोमेश
    शब्द साधना

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