Friday, June 11, 2010

हे, ईश्वर कहाँ हो तुम

(सुनील)
चल ऐ मन इस शहर से दूर चल
थक चुका है तन इस शहर से दूर चल
क्या कहें, किसको कहें, कैसे करें दर्द बयां
महंगाई ने इस कदर मारा है मुझको
अब तो रोटी का भी हमसे नाता टूट चुका है
बड़े अरमां से आये थे इस इस शहर में
छोटा सा अशियाँ बनाने को
मगर गिरवी रख चुका हूँ, तन एक रोटी पाने को
बीवी का मुरझाया चेहरा,
बच्चों की तरसती आँखे
कोई उमंग, न कोई तरंग
घूम रहे हैं इस शहर में नंग धडंग
कचोटता है मुझको मेरा मन
परिवार की हालत देखकर
खोजता हूँ हर कोने में
खाने को अन्न
कब तक चलेगा महंगाई का ये खेल
जीवन जीना हो गया मुश्किल
हे इश्वर कहाँ हो तुम
अब तो बस तेरा ही सहारा है

1 comment:

  1. लघु मानव के जीवन से संघर्ष को अभिव्यक्त करती सार्थक रचना.बधाई।

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