Thursday, June 10, 2010
कैसे कोई मेहनत की रोटी खाए!
सुनील
दुःखों का अंबार है, आसूंओं की धार है,
क्या हम गरीबों की जिंदगी, जानवरों से भी बेकार है।
बडी-बडी समस्याओं से हम हमेशा रूबरू होते हैं। मीडिया, न्यूज पोर्टल, ब्लॉग हर जगह इनकी चर्चा होती है। उन्हीं मुद्दों में कुछ ऐसे अनछुए पहलू रह जाते हैं, जिनसे हमारा वास्ता तो प्रतिदिन होता है लेकिन उन समस्याओं पर हम गौर नहीं कर पाते और न ही उनके लिए कहीं से कोई आवाज उठती है। अभी कुछ दिनों से देख रहा हूं कि शकरपुर(दिल्ली, जहां मैं फिलहाल रहता हूं) रोड पर रेहडी लगाने वाले(जिनमें फल और सब्जी वाले होते हैं) अपने अपने ठेली लेकर इधर-उधर भागते नजर आ रहे हैं। मैंन एक ठेली वाले से पूछा, क्यों भाई ऐसे क्यों भाग रहे हो। तो उसने कहा पुलिस वाले निरीक्षण के लिए आ रहे हैं। पकडे जाने पर सारा सामान ले जाते हैं। मैंने फिर से पूछा वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। इस पर उसका जवाब था कि मुझे ठीक से तो पता नहीं पर यहां कोई खेल होने वाला है और विदेशों से बहुत मेहमान आने वाले हैं। इसलिए हमें यहां से हटाया जा रहा है। ऐसी स्थिति दिल्ली में और न जाने कितने जगह होगी। कैसी विडंबना है कि एक समय था जब विदेशी हमारे देश में आकर भारतीयों को सालों तक शोषण करते रहे और अब विदेशियों को ससम्मान लाने के लिए एक भारतीय ही भारतीयों पर अत्याचार कर रहा है। हम शायद उन्हें यही दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि तुम्हारे जाने के बाद भी गरीब भारतीयों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आखिर विदेशियों को तकलीफ क्यों हो, दर्द सहने की आदत तो भारतीयों को वरदान में मिली हुई है। खेल के नाम पर न जाने गरीबों के साथ कौन-कौन से खेल खेले जाएंगे। अगर इसी तरह खेल के नाम पर गरीबों को सताया जाता रहा तो कैसे कोई ईमानदारी की रोटी खा पाएगा। क्यों हम अपने ही घर में परायों के जैसे जीने को मजबूर हैं। क्या इसके लिए कोई समुचित उपाय नहीं निकाला जा सकता, ताकि मेहनत करने वाले मेहनत की ही रोटी खा सकें।
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