सुनील वाणी
(सुनील) 7827829555
सरकार द्वारा महंगाई को लेकर बार बार आ रहा यह बयान 'महंगाई का प्रमुख कारण लोगों की आमदनी बढना है', थोडा हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए। क्या वो वेतन वृध्दि के खिलाफ है, या वो बचत के खिलाफ हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि आम आदमी के वेतन में बढोतरी हुई है तो महंगाई के लिहाज से वह कल जहां था आज भी वहीं खडा है। इस महंगाई ने तो बचत करने का अवसर ही छीन लिया। यदि आज के वर्तमान समय की पिछले कुछ वर्षों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो क्या आमदनी उस अनुपात में बढी है जिस अनुपात में महंगाई बढी है। रसोई से लेकर शिक्षा तक, मकान किराया से लेकर परिवहन किराया तक सब कुछ बेहिसाब बढ गया है। दूसरी अहम बात यह है कि आमदनी किसकी बढी है, सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की। वे समय दर समय और विशेष अवसरों पर लाभान्वित होते रहते हैं और सरकार के पास भी इनका सही लेखा-जोखा होता है। लेकिन हम इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों और स्वरोजगार या मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों की तादाद कहीं सरकारी क्षेत्रों में कार करने वाले लोगों से अधिक है। दिलचस्प पहलू यह है कि ऐसे निजी कंपनियों की भरमार है, जहां केवल वेतन से ही काम चलाना पडता है, वेतन भी ऐसा कि एक आदमी अपना पेट मात्र ही भर सके, परिवार तो बहुत दूर की बात है। ऐसे संस्थानों और कंपनियों में मौखिक रूप से वेतन तय कर दी जाती है। अब जब तक वो वहां काम करेगा इसी वेतन पर काम करता रहेगा। न कोई सलाना वृध्दि, न कोई बोनस, न महंगाई भत्ता और न ही अन्य भत्ता। फिर तो पीएफ की तो बात ही करना बेकार है। महत्वूपर्ण बात यह है कि इन संस्थानों में मौखिक वेतन ही नहीं बल्कि मौखिक रूप से नियुक्तियां भी हो जाती है। यानी संस्थान को जब आपकी आवश्यकता नहीं होगी, आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। आपका कोई रिकार्ड नहीं होने के नाते आप इन पर किसी तरह का क्लेम भी नहीं कर सकते। गरीब तबके की बात की जाए- जैसे रिक्शाचालक हो या और कोई मजदूर हो तो उनका भी वेतन के मामले में सबकुछ नियत ही होता है, जिसके साथ और कुछ भी जुडा नहीं होता। तो फिर वेतन किसकी बढी है लेकिन सजा तो हम सब भुगत रहे हैं।
(सुनील) 7827829555
सरकार द्वारा महंगाई को लेकर बार बार आ रहा यह बयान 'महंगाई का प्रमुख कारण लोगों की आमदनी बढना है', थोडा हास्यास्पद प्रतीत होता है। इसका क्या अर्थ निकाला जाए। क्या वो वेतन वृध्दि के खिलाफ है, या वो बचत के खिलाफ हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि आम आदमी के वेतन में बढोतरी हुई है तो महंगाई के लिहाज से वह कल जहां था आज भी वहीं खडा है। इस महंगाई ने तो बचत करने का अवसर ही छीन लिया। यदि आज के वर्तमान समय की पिछले कुछ वर्षों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो क्या आमदनी उस अनुपात में बढी है जिस अनुपात में महंगाई बढी है। रसोई से लेकर शिक्षा तक, मकान किराया से लेकर परिवहन किराया तक सब कुछ बेहिसाब बढ गया है। दूसरी अहम बात यह है कि आमदनी किसकी बढी है, सरकारी क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की। वे समय दर समय और विशेष अवसरों पर लाभान्वित होते रहते हैं और सरकार के पास भी इनका सही लेखा-जोखा होता है। लेकिन हम इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि निजी क्षेत्रों और स्वरोजगार या मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों की तादाद कहीं सरकारी क्षेत्रों में कार करने वाले लोगों से अधिक है। दिलचस्प पहलू यह है कि ऐसे निजी कंपनियों की भरमार है, जहां केवल वेतन से ही काम चलाना पडता है, वेतन भी ऐसा कि एक आदमी अपना पेट मात्र ही भर सके, परिवार तो बहुत दूर की बात है। ऐसे संस्थानों और कंपनियों में मौखिक रूप से वेतन तय कर दी जाती है। अब जब तक वो वहां काम करेगा इसी वेतन पर काम करता रहेगा। न कोई सलाना वृध्दि, न कोई बोनस, न महंगाई भत्ता और न ही अन्य भत्ता। फिर तो पीएफ की तो बात ही करना बेकार है। महत्वूपर्ण बात यह है कि इन संस्थानों में मौखिक वेतन ही नहीं बल्कि मौखिक रूप से नियुक्तियां भी हो जाती है। यानी संस्थान को जब आपकी आवश्यकता नहीं होगी, आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। आपका कोई रिकार्ड नहीं होने के नाते आप इन पर किसी तरह का क्लेम भी नहीं कर सकते। गरीब तबके की बात की जाए- जैसे रिक्शाचालक हो या और कोई मजदूर हो तो उनका भी वेतन के मामले में सबकुछ नियत ही होता है, जिसके साथ और कुछ भी जुडा नहीं होता। तो फिर वेतन किसकी बढी है लेकिन सजा तो हम सब भुगत रहे हैं।
कक़्क़ारखाने में तूती बजाना कहां मना है...
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