(सुनील) 7827829555
भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बडी नींव हमारे देश के कृषि और किसान हैं। बावजूद इसके इनकी लगातार उपेक्षाएं की जा रही हैं। हर बार किसी न किसी कारण से सरकार की नीतियों का शिकार इन्हें ही होना पडता है। सरकार भले ही कितने दावे कर ले लेकिन किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं कम नहीं हो रही हैं। पंचवर्षीय योजनाएं भी किसानों के लिए छलावा ही साबित हो रहा है। गौर करने लायक बात यह है कि अनाज की कीमतें भले ही कितनी बढ जाए, उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। आज हम महंगाई की मार से त्रस्त हैं। इस महंगाई का असर सबसे ज्यादा खाद्य वस्तुओं पर ही पडा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृध्दि कर दिया है जिसके कारण बाजार पर इसका असर पडा है। सच तो यह है कि किसानों की स्थिति तो स्थिर बनी हुई है। पैदावार कम हो तो भी किसानों की मुसीबत और ज्यादा हो तो भी किसानों की मुसीबत। बाजार और कृषि के बीच सामंजस्य बनी रहे और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम पर खाद्य पदार्थों की आपूर्ति बनी रहे इसके लिए सरकार को कृषिगत नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। यानी एक ऐसे हरित क्रांति की पुनः आवश्यकता है जो किसानों को उनका समुचित हक दिलवा सके। देश की अर्थव्यवस्था में भले ही कॉरपोरेट जगत की कितनी भी बडी सहभागिता हो लेकिन हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि उनकी भी नींव तभी मजबूत रह सकती है जब कृषि और किसान खुशहल हों। आखिरकार जिस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो, उस देश का सबसे बडा कारपोरेट जगत तो किसान और कृषि को ही कहा जा सकता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बडी नींव हमारे देश के कृषि और किसान हैं। बावजूद इसके इनकी लगातार उपेक्षाएं की जा रही हैं। हर बार किसी न किसी कारण से सरकार की नीतियों का शिकार इन्हें ही होना पडता है। सरकार भले ही कितने दावे कर ले लेकिन किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएं कम नहीं हो रही हैं। पंचवर्षीय योजनाएं भी किसानों के लिए छलावा ही साबित हो रहा है। गौर करने लायक बात यह है कि अनाज की कीमतें भले ही कितनी बढ जाए, उसका लाभ किसानों को नहीं मिल पाता। आज हम महंगाई की मार से त्रस्त हैं। इस महंगाई का असर सबसे ज्यादा खाद्य वस्तुओं पर ही पडा है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृध्दि कर दिया है जिसके कारण बाजार पर इसका असर पडा है। सच तो यह है कि किसानों की स्थिति तो स्थिर बनी हुई है। पैदावार कम हो तो भी किसानों की मुसीबत और ज्यादा हो तो भी किसानों की मुसीबत। बाजार और कृषि के बीच सामंजस्य बनी रहे और उपभोक्ताओं को भी वाजिब दाम पर खाद्य पदार्थों की आपूर्ति बनी रहे इसके लिए सरकार को कृषिगत नियमों में आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है। यानी एक ऐसे हरित क्रांति की पुनः आवश्यकता है जो किसानों को उनका समुचित हक दिलवा सके। देश की अर्थव्यवस्था में भले ही कॉरपोरेट जगत की कितनी भी बडी सहभागिता हो लेकिन हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि उनकी भी नींव तभी मजबूत रह सकती है जब कृषि और किसान खुशहल हों। आखिरकार जिस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो, उस देश का सबसे बडा कारपोरेट जगत तो किसान और कृषि को ही कहा जा सकता है।
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