Thursday, February 17, 2011

सरकार की व्यथा....

(सुनील) 7827829555


उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते चले गए,
वो जीते रहे, हम मरते रहे
ये सिलसिला यूं ही चलता रहा
फिर पांच साल बाद वो याचक बन खडे हुए,
हमने फिर उनका स्वागत किया
और उसी मजबूरी का 'हाथ' पकड,
हम यूं ही चलते रहे
उनकी मजबूरियों की सजा हम भुगतते रहे...
गठबंधन और भ्रष्टाचार जैसे चोली-दामन बन गया,
राजा और नीरा का नया लॉबिस्ट बन गया
अब तो खेल-खेल में रुपयों से अपना घर भरने लगा
स्टेडियमों में खिलाडी नहीं कलमाडी पैदा होने लगा
वो मजबूरियां गिनाते रहे, हम सजा भुगतते रहे...
जमीन से आसमां तक,
समुद्र से पाताल तक,
नहीं कोई अछूता रहा
हर दिल में पाप है,
अब कहां कोई सच्चा रहा।
आज फिर जब उनसे रूबरू हुए
उसी व्यथा ले बैठे रहे
मजबूरियों का दामन ओढे
वो जीते रहे, हम मरते रहे......

1 comment:

  1. अच्छी रचना, सारगर्भित।

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